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किन्तु इस उपयोगवादी युग में परिवार केवल पति-पत्नी तक सिमट गया है। युगानुरूप उनके पात्र प्रगतिशील तथा स्वच्छन्द विचारों के पोषक हैं। उनके अनुसार जीवन-मूल्य तेजी से आर्थिक बनते जा रहे है। उस वेग में जान पड़ता है कि परिवार और सम्मिलित परिवार का रूप छोटा हो जाने को बाध्य है। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि यदि आर्थिक सभ्यता का दौर-दौरा रहा तो यह परिणाम घटित हुए बिना न रहेगा। लेकिन पारिवारिक इकाइयाँ स्वयं उस आर्थिक सभ्यता के प्रवाह को रोके हुए हैं। उनके दो परवर्ती उपन्यास 'मुक्तिबोध' और 'अनन्तर' की कथा में पारिवारिक सम्बन्धों के मध्य होने वाले 'मतभेद' को ही विशेष प्रश्रय मिला है।
पिता-पुत्र तथा बेटी-दामाद के मध्य घटित घटनाओं को पारिवारिक स्तर पर ही चित्रित किया गया है। अन्य प्रारम्भिक उपन्यासों में परिवार तो है, किन्तु परिवार की घटनाओं अथवा समस्याओं की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया है। वहाँ वाह्य घटना से अधिक मानसिक तनाव दृष्टिगत होता है। जैनेन्द्र जी के कथा साहित्य में परिवार की स्थिति अत्यधिक निर्बल है।
व्यक्तित्व का समुचित विकास सुखी परिवार के सौहार्दपूर्ण परिवेश में ही सम्भव हो सकता है। पारिवारिक तनाव की स्थिति में व्यक्तित्व का विकास समाज में अपना विशिष्ट स्थान नहीं बना पाता। जैनेन्द्र के कथा साहित्य में इतना वैषम्य दिखायी देता है कि उनके सम्बन्ध में कोई निश्चित धारणा नहीं बनायी जा सकती। 'कल्याणी' में जो व्यथा है वह 'मुक्तिबोध' की स्वच्छन्दतापूर्ण परिस्थिति में सम्भव नहीं हो सकती है। जैनेन्द्र परिवार के अस्तित्व का खण्डन समाज के हित के लिए महत्वपूर्ण नहीं मानते। जैनेन्द्र के कथा साहित्य में उत्पन्न होने वाली विषमता समाज को लेकर नहीं है, बल्कि मनुष्य की
10. जैनेन्द्र कुमार समय और हम पृष्ठ - 137
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