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जीवन की विविध समस्याओं की ओर उन्मुख हुए। परिवार व्यवस्था के क्रम में यह एक महत्वपूर्ण सोपान है।
भारत में बीसवीं शती से पूर्व अधिकांशतया संयुक्त परिवार का प्रचलन था, किन्तु समय के परिवर्तन के साथ-साथ संयुक्त परिवार टूटते गये। समाजवादी युग में संयुक्त परिवार का कोई अस्तित्व नहीं रह गया। संयुक्त परिवार के सम्बन्ध में डॉ० बैजनाथ प्रसाद शुक्ल के विचार द्रष्टव्य हैं -
"भारतीय समाज व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण अंग संयुक्त परिवार रहा है। संयुक्त परिवार प्रणाली प्राचीनकाल से सामाजिक संगठन का एकमात्र आधार रही है। इससे परिवार में सहयोग, सद्भाव, स्नेह एवं समानता की भावना बनी रहती है। पति-पत्नी, सास-बहू, ननद-भौजाई, देवर-भौजाई आदि के कलह एवं संघर्ष की कहानी आदिकाल से चली आ रही है, परन्तु आर्थिक स्वरूप इतना परोपकारी, परस्पराक्षेपी था तथा पारिवारिक सामंजस्य के आदर्श एवं संस्कार इतने दृढ़ थे कि कटुता उनके सामने व्यर्थ हो जाया करती थी। इस प्रकार संयुक्त परिवार अपने अस्तित्व को अक्षुण्ण बनाये रहा, जिसमें उस देश की आर्थिक परिस्थितियों ने आवश्यक सहयोग दिया। जैनेन्द्र के कथा साहित्य में संयुक्त परिवार का विशिष्ट उल्लेख नहीं हुआ है। उनके कथा साहित्य का निखार व्यक्ति के विषय में ही दृष्टिगत होता है, परिवार के परिवेश में नहीं, अर्थात् द्वन्द्व का कारण पारिवारिक समस्याएं न होकर आन्तरिक उत्पीड़न से उद्भूत अन्तर्द्वन्द्व है। जैनेन्द्र जी भारतीय संस्कृति के पूर्ण समर्थक हैं। उनकी दृष्टि में व्यवस्था विहीन समाज आदिम काल का प्रतीक हो सकता है। कृषि-प्रधान युग में संयुक्त परिवार ही विशेष रूप से प्राप्त होते थे,
8. डॉ० कुसुम कक्कड जैनेन्द्र का जीवन दर्शन, पृष्ठ-182 9. डॉ० बैजनाथ प्रसाद शुक्ल, भगवती चरण वर्मा के उपन्यासों मे युग चेतना, पृ0-64
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