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के भीतर छिपी रत्नराशि को उघाड़ते और मनुष्य की बौद्धिक, मानसिक समस्याओं का संश्लेषणात्मक ढंग से दिग्दर्शन कराते हैं। उनके कथा साहित्य में आन्तरिक समस्याओं का विशेष स्थान रहता है। उनका प्रत्येक उपन्यास किसी मानसिक उलझन या कुंठा की गुत्थियाँ सुलझाता सा प्रतीत होता है, मानसिक उलझन का सामूहिक सन्दर्भ न होकर मनुष्य का अपना निजी घेरा होता है। इसलिए जैनेन्द्र के कथा साहित्य का प्रत्येक प्रमुख पात्र उलझा हुआ, अहंवादी और कभी-कभी अति करुण बन गया है। स्त्रियाँ अधिक भावुक होती है, अतः वह उपर्युक्त समस्याओं की गम्भीर शिकार हैं।
व्यक्ति और समाज
__ जैनेन्द्र के साहित्य में व्यक्ति और समाज के विविध रूप दृष्टिगत होते हैं। व्यक्ति सामाजिक बन्धनों में जकड़ा होने के कारण उनसे मुक्ति पाने के लिए छटपटाता है और इसी में वह असामान्य बन जाता है। व्यक्ति और समाज की समस्यायें विविध रूपों में चित्रित हुई हैं।
स्त्री-पुरुष एवं परिवार
संसार स्त्री-पुरुष मय है। सृष्टि के आरम्भ से ही संसार केवल स्त्री-पुरुष के नाना सम्बन्धों द्वारा चल रहा है। आदिम युग में मानव जीवन की कोई व्यवस्था नहीं थी। मनुष्य अपनी मूल प्रवृत्तियों को स्वच्छन्द रूप से सन्तुष्ट करता था। डॉ० कुसुम कक्कड़ के शब्दों में
‘सम्यता के विकास के साथ स्त्री-पुरूष के सम्बन्ध अधिक व्यवस्थित होने लगे हैं। ज्यों-ज्यों उनमें विवेक बुद्धि जागृत हुई वे
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