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सन् 1929 में जैनेन्द्र की प्रथम कहानी 'फाँसी' प्रकाशित हुई। पहला उपन्यास 'परख' अगले ही वर्ष 1930 में छपा था। जैनेन्द्र जी कहानी और उपन्यास के अतिरिक्त चिन्तन प्रधान गद्य लिखने की ओर भी तभी प्रवृत्त हो गये थे। "जैनेन्द्र के विचार' नामक इनकी प्रथम वैचारिक रचना सन् 1937 में प्रकाश में आयी थी। इसके उपरान्त जैनेन्द्र जी नियमित लेखक के तौर पर स्थापित हो गये। इनका लेखन क्षेत्र प्रमुखतया कल्पना सापेक्ष एवं विचार सापेक्ष गद्य ही है। विशाल साहित्य की रचना करने वाले मनीषी साहित्यकार जैनेन्द्र जी ने गृहस्थी की कुछ घातक चोटों से पीड़ित होते हुये भी हुए अपने भीतर का चैतन्य सदैव लोकधर्मी ही बनाये रखा। परोपकारी संस्थाएँ, साहित्यिक सभाओं एवं राजनीतिक समितियों में वे अकुंठित भाव से प्रत्येक भूमिका निभाते रहे। अस्वस्थ होने पर भी बहुधन्धी योजनाओं में उनका नित्य सहयोग बना रहा। संस्थाओं की व्यवस्था की दृष्टि से जैनेन्द्र 'यूनेस्को राष्ट्रीय कमीशन' की कार्यकारिणी के प्रथम सदस्य बनाये गये थे और ‘भारतीय साहित्य अकादमी' कार्यकारिणी समिति के भी प्रथम सदस्य मनोनीत हुए थे। जैनेन्द्र ने सन् 1955 में प्रथम यूरोप यात्रा भी की थी। अगले वर्ष चीन के राष्ट्रीय साहित्यिक महोत्सवों में एक मात्र भारतीय प्रतिनिधि के रूप में जैनेन्द्र का चीन जाना हुआ था। सन् 1960 में रूस में आयोजित टॉलस्टाय की 50वीं पुण्य तिथि पर होने वाले अन्तर्राष्ट्रीय कन्वेन्शन के वे प्रतिनिधि बने। जैनेन्द्र ‘एशिया लेखक सम्मेलन' के संयोजक हुए। उन्होंने केन्द्रीय साहित्य अकादमी के प्रमुख सदस्य एवं भारतीय साहित्य परिषद् के वरिष्ठ सहयोगी के रूप में उल्लेखनीय कार्य किया है। उनकी साहित्यिक सेवायें और गम्भीर एवं प्रेरक विचारों की अभिनन्दना करते हुए राष्ट्रपति ने सन् 1970 में उन्हें पद्मभूषण की उपाधि से अलंकृत किया और सन् 1973 में दिल्ली विश्वविद्यालय ने डी०लिट की उपाधि से सम्मानित किया।
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