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के अनुसार- 'कला एक सामाजिक प्रक्रिया है ।" कलाकार का दोहरा व्यक्तित्व होता है- एक सामान्य मानव रूप और दूसरा साहित्यिक रूप। इनमें सर्जनात्मक चेतना प्रबल होती है । परिस्थितिजन्य अनुभव की अमूल्य राशि को कल्पना का पुट देकर वह कला के माध्यम से व्यक्त करता है। जिस प्रकार अग्नि से अग्नि प्रज्वलित होती है, वैसे ही साहित्यकार युगीन सामाजिक पृष्ठभूमि से प्रेरणा ग्रहण करते हुए युग - चित्र चित्रित करता है ।
जैनेन्द्र जी का विशाल कथा साहित्य युग दर्पण है, जिसमें अनेक सामाजिक समस्याएँ विभिन्न रंगों में प्रतिबिम्बित होती है। कथाकार के लिए समाज वह आधार है, जहाँ वह स्वयं जन्म लेकर जीवन के विकासशील सोपानों पर चढ़ता हुआ सामाजिक जीवन के स्वानुभूत चित्र प्रस्तुत करता है। समाज से जो कुछ वह ग्रहण करता है, उसमें कलात्मक रंग पर सामाजिक मनोरंजन करते हुए जीवन की विशिष्ट प्रतिच्छवि चित्रित करता है ।
साहित्य सामाजिक यथार्थ का दर्पण है, यह समझना जैनेन्द्र को मान्य नहीं है। अतः यह स्वीकार करने में किंचति संकोच नहीं होना चाहिए कि साहित्य लोकमंगल की कामना है, जिसका साधक साहित्यकार होता है ।
कथा साहित्य अपने को लगातार समाज से अधिकाधिक जोडने का प्रयत्न करता रहा है। जैनेन्द्र सदृश युगचेता कलाकार का सम्पूर्ण साहित्य युगचेतना का संवाहक है । उन्होंने साहित्य की रचना प्रेमचन्द जी के काल से प्रारम्भ कर दी थी । स्वयं प्रेमचन्द ने ही उनकी प्रथम कहानी को अपनी पत्रिका में प्रकाशित कर उनका साहस बढ़या था ।
1 डॉ० त्रिभुवन सिंह - हिन्दी उपन्यास और यथार्थवाद, पृष्ठ-31
2.
'Art is a social function' - Christopher Caudwell -Studies in a dying culture, Page-44
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