________________
अध्याय-2
जैनेन्द्र के कथा साहित्य में युगीन सामाजिक चेतना
कथाकार एवं समाजः अन्तर्बाह्य सम्बन्ध
साहित्य मानव-मानस की विशिष्ट एवं रमणीय अनुभूति है। साहित्य का पहला अंग है- भाव, जिसके लिए कल्पना का योगदान अपेक्षित है, परन्तु कल्पना ऐसी जो अनुभूति के आधार पर निर्मित हो।' इसी यथार्थ अनुभूति की विशिष्ट व्यंजना करने वाला साहित्यिक रूप-विधान कथा साहित्य है । इसलिए इसमें हृदय को स्पन्दन देने की क्षमता होती है । मानव चेतना समाज सापेक्ष हुआ करती है, और कथा साहित्य जो मानव चेतना का संवाहक है, नितान्त समाज निरपेक्ष हो ही नहीं सकता। वह तो जीवन की परिकल्पनात्मक अभिव्यक्ति है जिसके द्वारा जीवन के सौन्दर्यात्मक और आनन्द पक्ष का उद्घाटन होता है । इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कथा साहित्य दर्पण गत प्रतिच्छवि का परावर्तन नहीं प्रतिरूप है और प्रतिरूप का मूलभूत विधान समाज है। कथा साहित्य, सामाजिक प्रभावोद्भूत जीवन शक्ति के कारण जो कलाकार की ही प्राणशक्ति है, बहुधा सामाजिक चेतना का प्रेरक एवं प्रसारक होता है। मार्क्सवादी आलोचना साहित्य की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार नहीं करती है, बल्कि उसे सामाजिक विकास में एक हथियार के रूप में स्वीकार करती है। इस प्रकार साहित्य सामाजिक चेतना की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है जो युगीन परिवर्तनों को आत्मसात करता हुआ अनवरत प्रवाहमान है। कार्डवेल
[29]