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जैनेन्द्र प्रेमचन्दोत्तर हिन्दी उपन्यास के क्षेत्र में नवीन प्रवृत्तियों के प्रवर्तक और मानव जीवन का मूल्यांकन करते हुए अपने जीवन दर्शन का स्पष्टीकरण करने वाले आधुनिक कथा साहित्य के अनगढ शिल्पी' थे। जैनेन्द्र की दृष्टि में काल और देश की सीमाओं से ऊपर उठकर व्यक्ति मे अपने वृहतरूप की चेतना उद्दीप्त करना सत् साहित्य का लक्ष्य होना चाहिए। जैनेन्द्र जी ने जो महत्व व्यक्ति को दिया, वह समाज को नहीं दिया प्रेम, सत्य व परमात्मा के सम्बन्ध में जैनेन्द्र जी के और गाँधी जी के विचारों में अद्भुत साम्य है। इसी कारण अनेक विद्वानों ने माना है कि गाँधी जी के जीवन दर्शन का ही प्रतिपादन उन्होंने किया है। वे स्वयं स्वीकार करते थे कि वह गाँधी जी के ऋणी हैं। उनके कथा साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे सामाजिक समस्याओं के निरूपण के स्थान पर व्यक्तिगत उलझनों का विश्लेषण करते हुए पात्रों की बुद्धि और उनके हृदय के संघर्ष का उद्घाटन करते हैं । जैनेन्द्र ने स्वयं कहा है कि बुद्धि भरमाती है, वह द्वैत पर चलती है । उसके साहित्य का परम श्रेय अखण्ड और अद्वैत सत्य है, उसका व्यवहारिक रूप समस्त चराचर जगत के प्रति प्रेम अनुकम्पा है । उनके साहित्य में व्यक्तिवादी प्रवृत्ति के साथ अहंवादिता की अन्तः विश्लेषण उपलब्धि होती है।
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डॉ॰ मनमोहन सहगल ने जैनेन्द्र के विषय में अपने विचारों को निम्नांकित शब्दों में व्यक्त किया है - " स्पष्ट ही जैनेन्द्र ने जो महत्व व्यक्ति को दिया, वह समाज को नहीं । उपन्यासों के मुख्य पात्र प्रायः समाज के प्रति विद्रोही हैं। उनका अहम् इतना प्रबल है कि वे समाज के नियमों-बन्धनों में आवृत होकर अपनी स्वतन्त्र सत्ता का होम करने को तैयार नहीं । जैनेन्द्र ने उनके भीतरी यथार्थ की मज्जा तक
3 डॉ प्रताप नारायण टडन - हिन्दी उपन्यास में कथा साहित्य का विकास, पृष्ठ- 105
डॉ. विजय
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श्रेष्ठ - सप्त सिन्धु मासिक सितम्बर, 1970, पृष्ठ-65 साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृष्ठ-15
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जैनेन्द्र कुमार
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