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ग्रहण करता है वहीं दूसरी ओर वह समाज को प्रभावित भी करता है। डॉ० बैजनाथ प्रसाद शुक्ल का कथन है कि -
‘साहित्यकार युग चेतना द्वारा ही अपने साहित्य को संवारता है, जो युगीन देन है। वह एक सामाजिक प्राणी है जो समाज में जन्म लेता है, विकास पाता है और समाज में ही उसकी जीवन-गाथा का अन्त होता है। 23
साहित्यकार स्वयं को समाज से अलग नहीं कर सकता। उसकी कल्पना का समाज युगचेतना के प्रकाश के माध्यम से ही निर्मित होता है। सामाजिक तत्वों का जो प्रभाव अन्तःकरण पर पड़ता है, वही साहित्य के रूप में प्रकट होता है। कथा साहित्य समाज से समाज के लिए सामग्री ग्रहण करता है। इस प्रकार साहित्य के लिए समाज साध्य और साधन दोनों हैं। इस सम्बन्ध में मुन्शी प्रेमचन्द के विचार द्रष्टव्य हैं -
_ 'साहित्यकार बहुधा अपने देशकाल से प्रभावित होता है। जब कोई लहर देश में उठती है तो साहित्यकार के लिए उससे अविचलित रहना असम्भव हो जाता है। उसकी विशाल आत्मा अपने देश-बन्धुओं के कष्टों से विकल हो उठती है और इस तीव्र विकलता में वह रो उठता है, पर उसके रुदन में व्यापकता होती है। वह स्वदेश का होकर भी सार्वभौमिक होता है।24 इसी सन्दर्भ में डॉ० रामविलास शर्मा के विचार द्रष्टव्य हैं -
‘साहित्य इस प्रकार विश्वात्मा है और विश्वात्मा में राष्ट्रात्मा निवास करती है। इसी आत्मा की प्रतिध्वनि साहित्य है। 25
2मुशी प्रेमचन्द - साहित्य का उददेश्य पृष्ठ 2
23. डॉ० बैजनाथ प्रसाद शुक्ल - भगवती चरण वर्मा के उपन्यासों मे युगचेतना, पृष्ठ -2 24. मुशी प्रेमचन्द - साहित्य का उद्देश्य, पृष्ठ - 24-25 25. डॉ० रामविलास शर्मा - प्रेमचन्द और उनका युग, पृष्ठ - 135