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युग और साहित्य में परस्पर रात और दिन का सम्बन्ध है। इन्हें एक दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता है। जहाँ युग साहित्य को
उपजीव्य सामग्री प्रदान करता है वहीं साहित्यकार उस युग बोध को सम्प्रेषित कर एक शाश्वत रसात्मक सृष्टि प्रदान करता है। मानव सचेतन, ज्ञानवान और संवेदनशील प्राणी होने के कारण अपने परिवेश से प्रभावित होकर संवेगानुभाति को साहित्य के रूप में अभिाव्यक्ति करता है। साहित्य में जब कभी नवीन विधा का जन्म होता है, तो उसके मूल में अनेक परिस्थितियों का योगदान रहता है। इस सम्बन्ध में श्री राम गोपाल सिंह के विचार द्रष्टव्य हैं -
"व्यक्ति और समाज के जीवन में परिवर्तन, हर युग में ही होते हैं। और इन्हीं परिवर्तनों के आधार पर जीवन मूल्य विकसित होते हैं। ये जीवन मूल्य ही व्यक्ति के चरित्र और उसकी सभ्यता एवं संस्कृति के मेरुदण्ड बनते हैं। 21 साहित्यकार मानवी परिवेश मूल्यों के उद्घाटन का प्रयत्न करता है और उसका यही प्रयत्न साहित्य सृजन करता है।
समष्टिगत चेतना की उपज होने के कारण साहित्य और समाज में अटूट सम्बन्ध है। समाज के विभिन्न क्षेत्रों और परिस्थितियों में साहित्यकार के चेतन मन पर पड़े संस्कार अवचेतन मन में संग्रहीत होते रहते हैं और वही अभिव्यक्त होते हैं। सच्चा साहित्यकार कभी भी सामाजिक उपादानों द्वारा चेतन मन पर पड़े संस्कारों की अवहेलना नहीं कर सकता। साहित्य और समाज की दो समान्तर रेखाओं को स्पर्श करने वाली तिर्यक रेखा युग-चेतना ही है। युग चेतना-अपने सम्पूर्ण ऐश्वर्य के साथ साहित्य की सामग्री बनती है और साहित्यकार उससे प्रेरणा ग्रहण करता है। जहाँ एक ओर वह समाज से प्रेरणा
21 श्री राम गोपाल सिह - स्वातत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास, स०-महेन्द्र भटनागर, पृष्ठ - 13 22 डॉ. देवराज- साहित्य चिन्ता, पृष्ठ - 68
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