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निर्वाह के लिए आवश्यक है कि वह युग चेतना की परम्परा से परिचित हो तथा परम्परा और पृष्ठभूमि में समन्वय बनाये रख सके।
साहित्य और समाज सम्बंध
का युग चेतना से
आलंकारिक भाषा मे साहित्य पुष्प के समान बँधा हुआ नही होता है। साहित्य की तुलना सरिता से करना अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। सरिता में स्वच्छन्दता और प्रवाहमयता होती है। साहित्य भी इन गुणों से अछूता नहीं है। जिस प्रकार सरिता बहते-बहते अनेक मोड लेती है ठीक उसी प्रकार साहित्य भी अपनी पूर्व परम्पराओं से अलग होकर अनेक मोड़ लेता है और वही मोड़ युगान्तर का सूचक होता है।
साहित्य युग चेतना से संश्लिष्ट होता है। साहित्य में न केवल युग की आध्यात्मिक, भौतिक और मौलिक प्रवृत्तियों की प्रतिक्रिया ही विद्यमान होती है बल्कि युग की आशा-आकांक्षा और आदर्श भी परिलक्षित होते हैं। अतः हम समसामयिक साहित्य में तत्कालीन परिस्थितियों को देख सकते हैं। साहित्य में समाज के भाव और विचारों का प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है। समाज भी साहित्य द्वारा प्रसारित भाव और विचारों से प्रभावित होता रहता है इस प्रकार साहित्य और समाज में परस्पर आदान-प्रदान तथा क्रिया-प्रतिक्रिया का अनवरत क्रम चलता रहता है। अतः किसी युग के साहित्य की समीक्षा के लिए उस युग की जनता की चित्तवृत्तियों का परिचय और विश्लेषण अति उपयोगी है।20
20 प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब है (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल-हिन्दी
साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-3)
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