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द्वारा प्रकट अर्थों का रूप दीर्घकालीन सार्वजनिक मान्यता है। डॉ० प्रभाकर माचवे परम्परा का अर्थ परिपाटी से लेते हुए, उसे रूढ़ि का परिचायक मानते हैं। परम्परा परिपाटी तो अवश्य है, रूढ़ि नहीं, क्योंकि विभिन्न रूपों में लकीर पीटने वाली दार्शनिक विधि नहीं है। साहित्य में जिसे ट्रेडिशन कहते है, वह रूढ़ि नही है। परम्परायें विकासशील युग के साथ विकसित हो नवीन में घुल-मिल जाती हैं और उनका अवशेषांश जो काई की तरह सड़ने लगता है उसे रूढ़ि कहते है।1 'ट्रेडिशन' एवं रूढ़ि के आधार पर बने 'वाद' को ट्रेडिशनलिज्म या रूढिवाद कहते हैं। इस प्रकार प्राचीन सभ्यता से जो पूर्ण प्रवाह निकलकर आया, जिसने साहित्य को रूप तथा एकान्वित प्रदान की है, वही आदर्श परम्परा है।
परम्परा की जड़ें पर्याप्त गहराई में होती हैं, जिन्हें समय का चक्र विनष्ट नहीं कर सकता है। मानव और परम्पराओं का एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। साहित्य और मनुष्य का भी घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। अतः साहित्य भी परम्पराओं से अछूता नहीं रह सकता। इतना अवश्य है कि परिस्थितियों से प्रभावित होकर परम्पराओं के मूल रूप में कुछ न कुछ परिवर्तन हो जाता है। साहित्य में औचित्य मर्यादा एवं पूर्ववर्ती परिपाटी आदि को सुरक्षित रखने के लिए निर्विवाद रूप से परम्पराओं का अपना विशेष महत्व है।
पृष्ठभूमि और चेतना
साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब होता है, जिसमें युगीन परिस्थितियों का अवलोकन किया जा सकता है। पृष्ठभूमि प्रतिबिम्ब की वह शक्ति है जिसमें बिम्ब-विधान परिलक्षित होता है। पृष्ठभूमि में
11. गिलवर्ट मरे -दि क्लासिकल ट्रेडिशन इन पोयट्री, पृष्ठ-5
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