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शिल्पगत चेतना के विविध तत्वों का विवेचन किया गया है। साहित्य में कला और शिल्प दोनों का समान आदर है। कोई भी कला युगीन सामाजिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक गतिविधियों से जुड़ी होती है। सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ-साथ मानव की अभिरुचि और सौन्दर्य-चेतना में परिवर्तन होता रहा है। सौन्दर्य-चेतना कला की जननी है । अतः युग चेतना कला और शिल्प सापेक्ष होती है ।
साहित्यिक कला के
शिल्प विधि भी है और
संदर्भ में शिल्प का अर्थ बहुत व्यापक है । विधान भी । शिल्प के अन्तर्गत वे सभी क्रियाएँ - प्रतिक्रियाएँ सम्मिलित हैं, जिनके द्वारा कलाकार सौन्दर्य की सृष्टि करता है । शिल्प विषय और अनुभूति को विशेष प्रकार से अभिव्यक्त करने का साधन है ।
उपाय - विधियाँ - प्रविधियाँ,
जैनेन्द्र कुमार ने अपने कथा - साहित्य में परम्परा से चले आ रहे शिल्प-विधान को एक नया आयाम दिया। शिल्प के सम्बन्ध में उन्होंने स्वतंत्रता पूर्वक काम लिया। उन्होंने शिल्प को इतना सजीव बना दिया कि पाठक की कल्पना - शक्ति जाग्रत हो उठी । चाहे पात्रों का चरित्र-चित्रण हो या कथा का वर्णन, उन्होंने भाषा और शिल्प के स्तर पर बडी सूझ-बूझ से काम लिया। उनके कथा साहित्य में शिल्प-प्रयोग के विविध रूप मिलते हैं । एक तरह से शिल्प - वैशिष्ट्य ही उन्हें अपने समकालीन कथाकारों से अलग एक विशिष्ट स्थान प्रदान करता है । उनके शिल्प में प्रौढता के दर्शन होते हैं। इस अध्याय में उनके शिल्प- प्रयोग की विविधता का उनके कथा-साहित्य के परिप्रेक्ष्य में विवेचन किया गया है और यह भी विवेचन किया गया है कि उनकी शिल्पगत चेतना कहाँ तक युग - चेतना - सापेक्ष है।
उपसंहार में प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के निष्कर्षों का समाकलन करते हुए जैनेन्द्र की युग चेतना का मूल्यांकन किया गया है। इसके अन्तर्गत यह मूल्यांकन किया गया है कि जैनेन्द्र का कथा-साहित्य
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