________________
अपने कथा-साहित्य में जैनेन्द्र पूँजीपतियों के प्रति गहरा आक्रोश व्यक्त करते हैं। वह समाज में उत्पन्न आर्थिक विषमता का मूल दायित्व पूँजीपतियों पर ही मानते हैं। उन्होंने अपने पात्रों द्वारा पूँजीपतियों के विरूद्ध हिंसात्मक आक्रोश को भी व्यक्त किया है। प्रस्तुत अध्याय में जैनेन्द्र की आर्थिक दृष्टि, अर्थ और मानव का सम्बन्ध तथा उनकी पूंजीवादी दृष्टि का विवेचन किया गया है।
अध्याय चार का शीर्षक है- 'जैनेन्द्र के कथा साहित्य में दार्शनिक चेतना'। इसके अन्तर्गत कथा-साहित्य और दार्शनिक चेतना का अन्तर्सम्बन्ध, जैनेन्द्र की दार्शनिक चेतना का स्वरूप, नियतिवादी दार्शनिक चेतना, आस्थामूलक भाग्यवादिता, निष्काम कर्मयोग, पुनर्जन्म, मृत्यु और अमरत्व आदि का जैनेन्द्र के कथा-साहित्य के परिप्रेक्ष्य में विवेचन किया गया है।
__ दर्शन और साहित्य का गहरा सम्बन्ध है। दर्शन जीवन और जगत् के रहस्यों का उद्घाटन करता है और साहित्यकार भी यही करता है। परन्तु दोनों की क्रियाएँ भिन्न-भिन्न हैं। साहित्य में अन्तर्दृष्टि के माध्यम से जीवन के विविध रूपों की झाँकी प्रस्तुत की जाती है। एक सफल साहित्यकार जीवन और दर्शन-दोनों का समन्वित रूप अपने साहित्य में प्रस्तुत करता है।
जैनेन्द्र आस्थावादी कथाकार हैं। उनके कथा-साहित्य में जो दार्शनिकता दृष्टिगत होती है, उसमें उनकी आस्था की हार्दिकता ही अन्तर्भूत है। उनके कथा-साहित्य का प्रमुख आदर्श सत्य का साक्षात्कार करना रहा है। सत्य आत्मतत्व है। दर्शन का उद्देश्य सत्य के प्रति व्यक्ति की जिज्ञासा को शांत करना है। इसी दार्शनिक सत्य को जैनेन्द्र अपने कथा-साहित्य में उतारते हैं। जैनेन्द्र के अनुसार जीवन संघर्ष-पूर्ण यात्रा है। मनुष्य अपने भाग्य और परिस्थिति से जूझता हुआ अपनी जीवन-यात्रा को पूर्ण करने का प्रयास करता है।
[viii]