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जैनेन्द्र के कथा-साहित्य में धार्मिक चेतना के अन्तर्गत जैनेन्द्र की धार्मिक दृष्टि, धर्म का अर्थ और स्वरूप, धर्म और सम्प्रदाय, धर्म और विज्ञान, धर्म और राजनीति, जीवन मे धर्मों की उपादेयता आदि का विवेचन किया गया है। जैनेन्द्र ने धर्म को जीवन का आवश्यक अग माना है। मानव जीवन के सभी कार्यो की सार्थकता उसके धर्ममय होने में है। जैनेन्द्र स्वयं जैन धर्म को मानने वाले थे, फिर भी हिन्दू, बौद्ध, मुस्लिम, ईसाई आदि धर्मों का सम्मान करते थे। उनके पात्र धर्म में अपनी अटूट आस्था प्रकट करते हैं। दुःखों और सघर्षों को झेलते हुए भी उनके पात्र धर्म-मार्ग से विचलित नहीं होते।
उनके अनुसार धर्म का मूल उद्देश्य मनुष्य को मोक्ष दिलाना है। यह मोक्ष अहं से मुक्त हुए बिना नहीं मिल सकता। धर्म जीवन का वह केन्द्र हैं जहाँ से मनुष्य अपनी यात्रा प्रारम्भ करता है और अन्त भी करता है।
जैनेन्द्र के कथा-साहित्य में आर्थिक चेतना के अन्तर्गत सामाजिक और आर्थिक विषमताओं का उनके कथा-साहित्य के संदर्भ में विवेचन किया गया है। जैनेन्द्र के कथा-साहित्य में आर्थिक विषमता से पीड़ित मानव अनेक रूपों में दिखाई पड़ते हैं। 'कल्याणी', 'सुखदा', 'मुक्तिबोध', 'अनन्तर' और 'अनामस्वामी' में उन्होंने आर्थिक वैषम्य का विशद् चित्रण किया है।
जैनेन्द्र ने समाज के स्तर को बढ़ाने के लिए मानवीय मूल्यों को विशेष महत्व दिया। उनका कहना था कि ये मानवीय मूल्य अमीरी के प्रति व्यर्थ के गर्व को समाप्त करके ही स्थापित हो सकते हैं। उन्होंने मनुष्य की अवहेलना और अर्थ के सत्कार को लेकर गहरा दुःख व्यक्त किया। अर्थ की शक्ति ने ही गरीब और अमीर में भेद उत्पन्न किया, जिससे मनुष्य मनुष्य को पहचानने में असमर्थ है।
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