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विभिन्न रूपों का चित्रण करते हैं। सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्थाओं एवं समय और परिस्थितियों के कारण उपजी समस्याओं का भी उनके कथा-साहित्य में चित्रण हुआ है। कथाकार जैनेन्द्र के इसी सामाजिक संदर्भ को ध्यान में रखते हुए व्यक्ति, परिवार और समाज के परिप्रेक्ष्य में ब्रह्मचर्य, विवाह, प्रेम-विवाह, प्रेम और विवाह, अनमेल विवाह, विवाह-विच्छेद, मातृत्व, वेश्या का स्वरूप तथा वैधव्य आदि का विवेचन किया गया है।
अध्याय तीन का शीर्षक है - 'जैनेन्द्र के कथा-साहित्य में सांरकृतिक-धार्मिक-आर्थिक चेतना'। इसके अन्तर्गत सर्वप्रथम जैनेन्द्र के कथा-साहित्य में सांस्कृतिक चेतना के स्वरूप का विवेचन किया गया है। इसमें संस्कृति शब्द के अर्थ एवं महत्त्व को स्पष्ट करते हुए जैनेन्द्र के कथा साहित्य में अन्तर्निहित सांस्कृतिक तत्वों का मूल्यांकन किया गया है। जैनेन्द्र का कथा-साहित्य प्राचीन और नवीन दोनों संस्कृतियों को अपने में संजोए हुए है। पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति के आगमन ने भारत में शिक्षित और अशिक्षित दो अलग-अलग सांस्कृतिक वर्गों का निर्माण किया। ये सांस्कृतिक वर्ग नागर और ग्राम्य दो रूपों में जाने गए। जैनेन्द्र ने भारतीय समाज में पाश्चात्य संस्कृति के आगमन और उससे पड़ने वाले प्रभावों को बखूबी समझा था। वह भारतीय संस्कृति के प्रबल पक्षधर थे। किन्तु पश्चिम के सम्पर्क से उत्पन्न हुई नवीन चेतना का उन्होंने विरोध नहीं किया। यह नवीन चेतना विचार-स्वातंत्र्य की पक्षधर थी। जैनेन्द्र की सांस्कृतिक चेतना युग जीवन से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई थी। वह अपने कथा-साहित्य में युगीन सांस्कृतिक तत्वों को अभिव्यक्त करने में कितने सफल हुए हैं - इसी का विवेचन प्रस्तुत शोध-प्रबंध में किया गया है।
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