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हुआ भी गरिमा को अपनाने तथा गरिमा के साथ कुछ और सम्भावित उपलब्धियों से विरत नहीं हो सका। वह कट्ओ से छुटकारा पाने की इच्छा से कभी कट्टो को तो कभी बिहारी को एक दूसरे के प्रति प्रेरित करता रहा। कट्टो ने जब उसके पावो में लिपट कर रोना आरम्भ किया तब एक बार वह विचलित हो उठा। स्पष्ट ही उसकी बुद्धि अस्थिर है, उसका आदर्श बाहरी आवरण है, यथार्थ की वायु के पहले झोंके में ही उड़ने लगता है। दूसरा झोंका गरिमा तथा जीवन की कुछ सम्पादित उपलब्धियो का था, जिसने पूर्ण रूप से उस आवरण को उड़ा दिया। यह सब सामाजिक परिस्थितियाँ हैं। विवाह के बाद कट्टो से पूर्णतः सम्बन्ध विच्छेद के मार्ग की तलाश सामाजिक प्रतिक्रिया ही कही जा सकती है।
बिहारी ही 'परख' का एक मात्र ऐसा पात्र कहा जा सकता है जिसमें मानसिक चेतना सजग है और यह पूरे उपन्यास में अन्तर्मुखी हुआ दिखायी पड़ता है। जहाँ लेखक सत्यधन की परिस्थिति का बहिर्मूल्यांकन करता रहा है, वहीं बिहारी आदि से अन्त तक न केवल अन्तर्मुखी बना रहा, बल्कि प्रेम के क्षेत्र में भी आत्मोत्कर्ष करता है।
श्रीकान्त और हरिप्रसनन्न 'सुनीता' उपन्यास के पुरुष पात्र हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से दोनों ही कुंठित है। सामाजिकता उनमें नहीं है। व्यक्ति जीवन की प्रधानता के कारण उनके व्यवहार में सामाजिक मान्यताओं के सन्दर्भो का अभाव है। अपनी-अपनी लीक पर चलते हुए दोनों अग्रसर होते हैं। हरि प्रसन्न का जीवन अकेला है। नारी उसके जीवन में कभी भी आकर्षण का केन्द्र नहीं बन पायी थी। किन्तु शनैःशनैः घनिष्ठता बढ़ने से मामी की गरिमा में उसने 'नारीत्व' के दर्शन करने आरम्भ किए। एक जिज्ञासा और उत्सुकता उसके अन्तश्चेतना में पनपने लगी थी, इसलिए उसने सुनीता को हरि प्रसन्न की प्रत्येक इच्छा को पूर्ण करने का आदेश दिया था। श्रीकान्त शायद
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