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पात्रों के चरित्रों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करना हमारा लक्ष्य है । ‘परख' में दो पुरुष पात्र हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं- सत्यधन और बिहारी । सत्यधन काल्पनिक आदर्शो से गुजरता हुआ यथार्थ की कठोर धरती पर अवतरित होता है और सांसारिकता में अपने को लीन कर लेता है। बिहारी जीवन की विविधता में से आदर्श को अपना आधार बनाता है और आजीवन उसी आदर्श को वास्तविक स्वरूप प्रदान करने के लिए अपने को बलिदान कर देता है। दोनों के जीवन में आने वाले इन परिवर्तनों की पृष्ठभूमि सामाजिक भी है और मनोवैज्ञानिक भी। सत्यधन भावुक है, उसमें उत्सर्ग की प्रवृत्ति नहीं है, केवल भावुकता के आकस्मिक वेग में बहकर वह आदर्श के आवरण को ओढ़ लेता है। आदर्श उसकी चमड़ी में है उसका खून, मांस, मज्जा आदर्श का नहीं। इसके विपरीत बिहारी के भीतर उत्सर्ग की शक्ति है, उसने अपने पर आदर्श का आवरण नहीं ओढ़ा है, वह जब कट्टो की स्थिति को देखता है और समझता है तो उस लड़की के उत्सर्ग बल को परखता है, उसके अन्तर को पहचान लेता है। वह अपने पिता की सम्पूर्ण सम्पत्ति पर भी अपना अधिकार त्याग कर स्वयं परिश्रम पूर्वक जीवन व्यतीत करने और कट्टो से दूर रहकर भी अपनों जैसा व्यवहार करने की सौगन्ध लेता है। यह आदर्श उसके भीतर की प्रेरणा है जिसमें वह नीचे से ऊपर तक डूब जाता है। इन दोनों पात्रों में सत्यधन का आदर्श से यथार्थ की ओर झुकाव सामाजिक परिवर्तन है, जबकि बिहारी का आदर्श अभियान एक मनोवैज्ञानिक सत्य का उद्घाटन | विश्लेषण करने से ज्ञात होगा कि सत्यधन वकालत पास करके वकील बनना चाहता है। वकीलों के मिथ्या व्यवहार से दुःखी होकर अपने सत्यरूपी धन की रक्षा हेतु उसने उस विचार का त्याग किया, जब त्याग युक्तिपूर्ण न होकर यौवन की तरंग मात्र ही था, क्योंकि जब भगवत दयाल ने उसे जीवन के यथार्थ का ज्ञान कराया तो वह कट्टो की ओर आकर्षित होता
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