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को स्पष्ट किया गया है 'कल्याणी' में कल्याणी किसी के घर जाने में अपनी इच्छा पर विश्वास नहीं करती और कहती है-'अच्छा! भाग्य होगा तो क्यों न आऊँगी । ' 18
जैनेन्द्र ईश्वर को सर्वप्रथम मानते हैं। अगर ईश्वर की इच्छा न हो तो व्यक्ति कुछ भी नहीं कर सकता। ईश्वर की आस्था में व्यक्ति के अहं का विगलन हो जाता है । अहं का भाव व्रत को सर्वप्रथम प्रमाणित करता है। व्यक्ति तो केवल माध्यम है। किन्तु कर्म का फल भाग्य पर ही आधारित होता है। जब ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है, तो व्यक्ति कर्म करता जाता है, परन्तु निराश नहीं होता, क्योंकि वह वर्तमान तक ही सीमित है, भविष्य में उसकी कोई भी पहुँच नहीं है ।
जैनेन्द्र के अनुसार भाग्य का लेखा संसार में व्यवस्था स्थापित करने का साधन है। जैनेन्द्र ने अपने शब्दों में व्यक्त किया है कि 'भाग्य का तर्क यदि कठोर है तो ऐसा अकारण नहीं है । X X X X x यहाँ जो जैसा करता है वैसा ही भरता है। 19 ईश्वर पक्षपात नहीं करता, उसके लिए संसार में सब लोग बराबर हैं, न कोई छोटा है न कोई बड़ा है। प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्मों का फल भोगता है । भाग्य व्यक्ति के संचित कर्मों का ही अभिव्यक्त रूप है। भाग्य व्यक्ति के पूर्व जन्मों के कर्मों से बनता है । इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि भाग्य कोरी भावना का प्रतीक है।
जैनेन्द्र के जीवन और साहित्य का प्रमुख आदर्श ईश्वरोन्मुख है । उनकी दृष्टि में भाग्य पर रहने वाला व्यक्ति कर्म की अवहेलना नहीं करता। कर्म करना तो उसका कर्तव्य है, किन्तु फल की प्राप्ति न होने पर वह ईश्वर को दोषी नहीं ठहराता बल्कि दुख में भी सुख की प्राप्ति का अनुभव करता है। जैनेन्द्र जी की रचनाओं के पात्र भाग्य के
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जैनेन्द्र
कुमार
जैनेन्द्र कुमार
कल्याणी, पृष्ठ - 79
वह रानी,
पृष्ठ 47
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