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नहीं। इसी से जो जानने के लिए नहीं है, उसे जानने की चेष्टा चली है।15 उनकी दृष्टि में मनुष्य निर्जीव, जड और यंत्र नहीं है । उसमें विवेक, बुद्धि, तथा पुरुषार्थ है। अतएव ईश्वर मनुष्य की गति को रोकता नहीं है बल्कि उन्नति प्रदान करता है। उनके साहित्य में पात्रों की ईश्वर पर दृढ़ आस्था है। उनकी दृष्टि में सब कुछ करने वाला ईश्वर ही है। ईश्वर की महान शक्ति के समक्ष मनुष्य बहुत ही तुच्छ है। अतएव जैनेन्द्र के पात्र अत्यधिक भाग्यवादी हो गए हैं । उनके जीवन में सुख-दुख और उतार-चढाव भाग्य की परिधि में ही सम्भव हुआ है।
जैनेन्द्र के साहित्य में जगह-जगह भाग्य अथवा ईश्वर की पुकार से ऐसा प्रतीत होता है कि जैनेन्द्र के पात्रों को भाग्य का ही सहारा है और कहीं-कहीं तो ऐसा आभास होने लगता है कि अतिशय भाग्यवादिता कहीं पात्रों के जीवन में निष्क्रियता न उत्पन्न कर दे। उनकी कुछ कहानियों में बार-बार ईश्वर के नाम की पुनरावृत्ति हुई है। 'राजीव और भाभी' में दो-चार बार विधाता के समक्ष व्यक्ति की विवशता का उल्लेख किया गया है। जैनेन्द्र ने स्पष्ट कहा है कि 'जब राजीव ने मोटर की बात मन में पक्की कर ली, तब सब प्रपंचों के रचयिता बाबा विरंचि ऊपर बैठे-बैठे मुस्काराए होंगे, कहते होंगे- देखो लडके की बात - अरे हम फिर कुछ ठहरे ही नहीं। जो ये दुनिया के छोकरे हमें बिन बूझे ही सब करने लगेंगे तो हो लिया काम। 18 वहीं से भाग्य देव भी पलट कर बरस पड़ने लगे।" जीवन में भाग्य का सहारा तो लिया ही जाता है, परन्तु छोटी-छोटी बातों पर बिधाता का अनुसरण करना उचित नहीं प्रतीत होता। उनके साहित्य में किसी प्रमुख परिस्थिति में ही विधाता का सहारा लेकर व्यक्ति की विवशता
15 जैनेन्द्र कुमार - सुखदा, पृष्ठ -18 16 जैनेन्द्र कुमार - जैनेन्द्र की कहानियाँ, पृष्ठ - 31 17 जैनेन्द्र कुमार - जैनेन्द्र की कहानियाँ (राजीव और भाभी). पृष्ठ - 32
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