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डॉ० उदय भानु सिंह के इस विषय में विचार द्रष्टव्य हैं-'दर्शन तथ्यों की सूची न प्रस्तुत करके उनके विहित और नियमित रूप में तर्क संगत उपस्थापन करता है, उसी प्रकार काव्य अस्त-व्यस्त वैविध्यपूर्ण जीवन के तथ्यों का अनुकरण करके उनकी व्यवस्थित एवं रमणीय अभिव्यंजना करता है। चिरन्तन शक्ति के प्रति जिज्ञासा साहित्य एवं दर्शन दोनों का आधार है। भारतीय साहित्यकार एवं दार्शनिक दोनों ही अपने-अपने ढंग से सत्य के रहस्य का उद्घाटन करते हैं। दार्शनिक का यह चिन्तन बुद्धि परक होता है, परन्तु जब वह कथा साहित्य मे परिलक्षित होता है तो भावना परक हो जाता है, और भावना से जो सन्तुष्टि मिलती है, वही आनन्द है। दार्शनिक जीवन और जगत् के रहस्य का उद्घाटन करता है, साहित्यकार भी यही करता है, परन्तु दोनों की क्रियायें भिन्न-भिन्न हैं।
प्राचीन भारत में दर्शन का विषय अपने आप में स्वतन्त्र और आत्मनिर्भर था। कौटिल्य का कथन है कि दर्शनशास्त्र अन्य सब विषयों के लिए प्रदीप का कार्य करता है। यह समस्त कार्यों का साधन और समस्त कर्मों का मार्ग दर्शन करता है।'
कथा साहित्य भाव-प्रधान और विचार–प्रधान दोनों प्रकार का होता है। दर्शन सृष्टि के विभिन्न रहस्यों का उद्घाट न करता है, उसी प्रकार कथा साहित्य में साहित्यकार अन्तदृष्टि के माध्यम से जीवन के विविध रूपों की झाँकी प्रस्तुत करता है। जिस कथाकार की कृति में इन दोनों का समन्वय होता है, उसकी रचना सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। सफल और श्रेष्ठ साहित्य में आदर्श, कल्पना एवं जीवन दर्शन का समावेश होता है। कथा साहित्य के जगत् में जैनेन्द्र कुमार जी इसी प्रकार के साहित्यकार हैं; जिनके कथा साहित्य में तथाकथित विशेषताएँ सफल रूप में समाविष्ट हुई हैं।
2. डॉ० उदयभानु सिह - तुलसी-दर्शन - मीमासा, पृष्ठ - 26 3. डॉ० राधाकृष्णन - भारतीय दर्शन (प्रथम भाग), पृष्ठ - 19
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