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जैनेन्द्र की दार्शनिक चेतना का स्वरूप
जैनेन्द्र के कथा-साहित्य में चित्रित दार्शनिक चेतना का स्वरूप जानने से पहले दार्शनिक क्या है, जान लेना अति आवश्यक है। जैनेन्द्र जी का सम्पूर्ण साहित्य उनकी अन्तश्चेतना का ही परिणाम है। जैनेन्द्र आस्थावादी साहित्यकार हैं। इनके साहित्य में जो दार्शनिकता दृष्टिगत होती है, उसमें उनकी आस्था की हार्दिकता ही अन्तर्भूत है। उनके साहित्य का अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि साहित्य-सृजन के लिए उनका प्रमुख आदर्श सत्य के साथ साक्षात्कार करना रहा है। सत्य आत्मा में है। दर्शन-शास्त्र का उद्देश्य सत्य के प्रति व्यक्ति की जिज्ञासा को शान्त करना है। जैनेन्द्र दार्शनिक होने के साथ ही साथ साहित्यकार भी है। स्पष्ट होता है कि वे लेखक होने के कारण ही दार्शनिक के रूप में जाने जा सकते हैं। उनका समग्र साहित्य सत्य की खोज और उसकी अभिव्यक्ति का ही प्रतिफल है। जैनेन्द्र चाहे साहित्यकार हों अथवा दार्शनिक किन्तु उन सबसे परे वह एक विशिष्ट व्यक्ति हैं। उन्होने मानव-जीवन के शाश्वत सत्यों को उसके व्यवहारिक धरातल पर उतारने का प्रयास किया है। जीवन और जगत् के मिल जाने से उन्हें एक नितान्त मौलिक दृष्टि उपलब्ध हुई, वही उनका दर्शन है और दार्शनिक होने का सूचक है।
ईश्वर, ब्रह्म, जीव, जगत् के परस्पर सम्बन्ध तथा उनके रहस्य को समझने के लिए वे संसार से अलग नहीं गए बल्कि प्रतिदिन के जीवन में ही उन्होंने सत्य को खोज निकाला। अपनी आन्तरिक सहानुभूति और संवेदना से उन्होंने गम्भीरता और जटिलता में भी सरलता का समावेश किया है। जैनेन्द्र जी के प्रयास से साहित्य जगत में एक क्रान्तिकारी प्रभाव की स्थिति उत्पन्न हो गयी। उनकी समन्वयात्मक दृष्टि ने मानव को श्रद्धा और विश्वास का अपूर्व सम्बल प्रदान किया।
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