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अध्याय-4
जैनेन्द्र के कथा साहित्य में दार्शनिक
चेतना
कथा साहित्य और दार्शनिक चेतनाःअन्तर्सम्बन्ध
कथा साहित्य का सृजन करने वाला साहित्यकार एक ओर तो कल्पना द्वारा बनाये गये विशाल भवन का कारीगर है तो दूसरी ओर विद्वान, चिन्तक, विचारक एवं दार्शनिक है, लेकिन दर्शन परक चिन्तन एक दार्शनिक से अलग होता है। दार्शनिक जहाँ सत्यता को प्रकट करने के लिए शास्त्रीय मानदण्डों का प्रयोग करता है, साहित्यकार वहीं शास्त्रीय कसौटी से अलग अपने स्वानुभूत जीवन की अभिव्यक्ति का प्रयोग करता है। यह स्वानुभूत जीवन उसके कथा साहित्य का दर्शन बन जाता हैं, जिसे जीवन-दर्शन भी कहते हैं। इसी जीवन-दर्शन को दार्शनिक चेतना की संज्ञा से विभूतिषत किया जाता हैं। दर्शन को संवृद्धि प्रधान माना गया है। कथा साहित्य में दर्शन की अभिव्यक्ति होती है। डॉ० भागीरथ मिश्र ने इस सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त किए हैं कि-दर्शन काल्पनिक तथ्यों के आधार पर विश्व का रहस्य-उद्घाटन करने का प्रयत्न करता है।'
साहित्यकार और दार्शनिक दोनों मंगलमयी भावना से प्रेरित होकर जीवन की व्याख्या करते हैं, जीवन की झाँकियाँ प्रस्तुत करते हैं तथा कथा साहित्य में मानव के मन की समस्त धारणाएँ एवं जीवन-दर्शन के सत्य स्वरूप का उल्लेख करते हैं। साहित्य जीवन की समीक्षा करता है तो दर्शन जीवन के चिरन्तन रूप का विश्लेषण।
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1. डॉ० भगीरथ मिश्र - काव्य शास्त्र, पृष्ठ - 42
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