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सहारा मिला और उनकी वैयक्तिक कुण्ठा सेक्स के माध्यम से निःसृत होने लगी। ऐसी युगीन परिस्थितियों में भी जैनेन्द्र कुमार नवीन सांस्कृतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा करने को प्रयत्नशील दिखाई पड़ते हैं। 'परख', 'सुनीता', ‘त्यागपत्र' और 'जयवर्धन' में एक ओर वह मानवीय आस्था और अनास्था के अन्तर्द्वन्द्व को चित्रित करते हैं तो दूसरी ओर एक नयी संस्कृति, नयी सम्पदा की अभिव्यक्ति करते हैं, जिससे मानव का हित हो सके। जैनेन्द्र ने अपने युग के आस्था और विश्वास को युगीन जन-जीवन की कसौटी पर जकड़ कर बौद्धिक रूप से नयी सांस्कृतिक चेतना के रूप में स्थापित किया है।
सांस्कृतिक तत्वों का समावेश
सांस्कृतिक पुनर्जागरण में धार्मिक चेतना का अपना विशिष्ट महत्व है। धर्म ने राष्ट्रीयता को प्रेरित किया तथा पुर्नजागरण को व्यापकता तथा गहराई प्रदान की। धार्मिक भावनाओं में समन्वयात्मक संगठन से सांस्कृतिक चेतना का निर्माण हुआ करता है। भारतीय सांस्कृतिक चेतना यदि धर्म से आवश्यक रूप से सम्बन्धित रहे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। धर्म मनुष्य तथा समाज के सामाजिक और व्यवहारिक जीवन में सक्रिय होकर संस्कृति का रूप ले लेता है। जैनेन्द्र के साहित्य के पात्र ईश्वर पर विश्वास करते हैं। जैनेन्द्र का जीवन अध्यात्म और भौतिकता का समुच्चय है। भौतिकता यदि शरीर है तो अध्यात्म उसकी आत्मा है। दोनों का घनिष्ठ सम्बन्ध है। सांस्कृतिक चेतना में धार्मिक चेतना का बहुत महत्व है। धर्म ही राष्ट्र को प्रेरित करता है। धार्मिक संगठन से सांस्कृतिक चेतना का निर्माण होता है। उनके साहित्य में धर्म का समावेश स्पष्ट रूप से हुआ है। जैनेन्द्र ने धर्म को ज्ञान से नहीं बल्कि अनुभव से स्वीकार किया है। उनका धर्म मानव धर्म है। सांस्कृतिक चेतना में धर्म का समावेश उसी
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