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प्रकट कर सकता है या नहीं । इतना अवश्य स्वीकार करना पड़ता है कि युगीन सांस्कृतिक तत्वों की पूर्ण अभिव्यक्ति किए बिना कोई भी साहित्यक कृति महत्वपूर्ण नहीं बन सकती । सांस्कृतिक चेतना के अभाव में कोई भी कथाकार अथवा उपन्यासकार महान रचना नहीं कर सकता। कथा साहित्य सबसे अधिक सशक्त माध्यम है, क्योंकि उसका सम्बन्ध युग की यथार्थ घटनाओं से है । उसका लक्ष्य ही जीवनगत यथार्थ को प्रकट करना है । अतः यथार्थ के धरातल पर कथा साहित्य अनिवार्य रूप से संस्कृति से जुड़ जाता है और वे एक दूसरे को इस प्रकार प्रभावित किए बिना नहीं रह सकते। सांस्कृतिक चेतना कथाकार के लिए उचित वातावरण का निर्माण करती है। कथाकार जहां अपने युग की संस्कृति को प्रभावित करता है वहीं वह उससे अपने सृजन में प्रेरणाएँ भी ग्रहण करता है। दोनों का यह सम्बन्ध आदान-प्रदान का है । कथाकार अपने युग को कुछ देता है, तो उससे कुछ लेता भी है। प्रेमचन्द अथवा जैनेन्द्र की सार्थकता इसी बात में है कि उन्होंने अपने युगीन सन्दर्भों की यथार्थताओं से गहरे स्तर पर अपना सम्बन्ध बनाये रखा, तभी 'गोदान' तथा 'परख' की रचना कर सके ।
जैनेन्द्र जी के 'परख', 'सुनीता' 'त्यागपत्र' आदि उपन्यासों में सांस्कृतिक चेतना की अभिव्यक्ति हुई है। सन् 1948 से 1962 का समय भारतीय सांस्कृतिक उपलब्धियों का युग रहा है। 'सुखदा' उपन्यास इसी की अभिव्यक्ति करता है। व्यक्तिवादी विचारधारा के उन्मेष से प्रत्येक वर्ग की अपनी विचारधारा दूसरे से अलग हो गयी । युगीन परिस्थितियों के प्रभाव से अध्यात्मवाद का स्थान भौतिकवाद ने ले लिया, जिसके कारण व्यक्ति और समाज की चिन्तन पद्धति का आधार भौतिकवादी हो गया। इसके अतिरिक्त फ्रायड् के मनोविज्ञान ने भी भारतीय सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित किया । निराशा, अवसाद, अनास्था और आक्रोश में जीने वाले बौद्धिकों को फ्रायड के दर्शन का
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