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एक ओर तो वैज्ञानिक साधनों से सम्पन्न नगरों में रहने वाले और आधुनिक कहे जाने वाले शिक्षित वर्ग की सांस्कृति का विकास हुआ, दूसरी ओर वैज्ञानिक साधनों से विहीन अन्धविश्वास ग्रस्त अशिक्षित वर्ग की सांस्कृतिक चेतना अवरुद्ध हो गयी है। इस प्रकार दो वर्गों की सांस्कृतिक चेतना नागर संस्कृति और ग्रामीण संस्कृति के रूप में विभाजित हुई ।
संस्कृति का पक्षधर
बीसवीं शताब्दी भारतीय समाज में अतीत गौरव तथा देश-प्रेम और प्राचीन संस्कृति के प्रति आस्था के भाव से पूरित है। युगीन जन अंग्रेजी शासन की भले ही सराहना करता है, परन्तु भारतीय जन पाश्चात्य संस्कृति के संघर्ष में सदैव ही भारतीय है। जैनेन्द्र जी आचार-विचार, रहन-सहन आदि में पश्चिमी नकल को नहीं मानते हैं। यही कारण है, ऐसे मनुष्य को दुःख देने से नहीं चूकते हैं जो भारतीयता से भिन्न दिखाई पड़ते हैं। आधुनिक युग के धार्मिक–सांस्कृतिक जागरण में मनुष्य के स्थान पर ईश्वरीय शक्ति का प्रभाव था। डॉ० लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय के शब्दों में 'पूर्व और पश्चिम के सम्पर्क से नव चेतना उत्पन्न हुई, समाज अपनी खोई हुई शक्ति बटोर कर गतिशील हुआ, नवयुग के जन्म के साथ विचार - स्वातंत्र्य का जन्म हुआ। साहित्य में गद्य की वृद्धि हुई और कवियों ने अपनी परिपाटी विहित और रूढ़िग्रस्त कविता को छोड़कर दुनिया को नई आँखों से देखना शुरू किया। उपन्यास, नाटक, निबन्ध, समालोचना आदि ने नवीन चेतना का अनुसरण किया ।"
कथा साहित्य का अपने युग जीवन की संस्कृति से घनिष्ट सम्बन्ध जुड़ जाता है। कथाकार के लिए यह बड़ी चुनौती का विषय है कि वह अपने युगीन सांस्कृतिक तत्वों को अपने कथा साहित्य में
17 डॉ० लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय - हिन्दी गद्य की प्रवृत्तियाँ, पृष्ठ - 11
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