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गया है। सभ्यता से तात्पर्य उन आविष्कारों, उत्पादन साधनों तथा सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं से है, जिनके द्वारा मानव-जीवन सरल, सरस और स्वतन्त्र बनता है। परन्तु संस्कृति हमारे चिन्तन, मनन और कलात्मक सर्जन की उन क्रियाओं से सम्बन्धित है जो परोक्ष रूप से जीवन को समृद्ध बनाने वाली हैं।
विश्व चेतना के मानस में मानवीय मूल्यों और आदर्शों की अन्तर्निहित संस्कृति है, जो सभ्यता का अस्तित्व उन आदर्शों और मूल्यों का पालन करने वाले सहायक उपादानों से सम्बन्धित करती है। संस्कृति वह गुण है जो परम्परा से हम में व्याप्त है और सभ्यता जीवन को सँवारने की वह कला है जो हमें श्रम से प्राप्त होती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि संस्कृति के मूल में सभ्यता का निवास होता है। रहन-सहन की सभ्य अवस्था का अनुभव होने पर मनुष्य संस्कारवान् बनने लगता है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि संस्कार ऊपर से आच्छादित आवरण है, अपितु मानव के अन्दर मानस में निहित संस्कार अनुकूल वातावरण में सक्रिय हो जाते हैं। भोजन, वस्त्र, महल, मोटर आदि पार्थिव पदार्थ सभ्यता के साधन हैं, परन्तु भोजन करने एवं वस्त्र पहनने की कला, भवन बनाने और मोटर चलाने के कौशल में संस्कृति समाहित रहती है। संस्कृति सभ्यता की अपेक्षा सूक्ष्म वस्तु होती है। यह सभ्यता के अन्दर उसी तरह लुप्त रहती है जैसे कपास में रूई। इस प्रकार सभ्यता समाज की बाहरी व्यवस्थाओं का नाम है। संस्कृति व्यापक और सभ्यता संकोचशील है।
साहित्य और संस्कृति
साहित्य जनमानस की भीतरी और बाहरी प्रतिच्छवियों का प्रकाशन करने वाला ज्ञान राशि का संचित कोश है। इसलिए वह किसी देश या काल की संस्कृति के ज्ञान का सर्वाधिक विश्वस्त
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