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जाति, राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुंच गया। सामाजिक व्यवस्था के विकास के साथ-साथ सांस्कृतिक विकास होता रहा। राजनीतिक संस्था का विकास आज उस बिन्दु तक पहुंच चुका है, जहाँ मानव मात्र किसी न किसी शासन सूत्र से आबद्ध है। बौद्धिक चेतना के ऊर्ध्व शिखर को स्पर्श करने वाले मानव ने जिस विषय को सामाजिक विकास के लिए उपयोगी समझा, अपना लिया। मनोरंजक आनन्दानुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए अपने साहित्य और कला को जन्म दिया और आत्मतुष्टि के लिए धर्म का विकास किया। ये सभी संस्कृति के संस्कारजन्य अंग हैं।
भारतीय दर्शन के अनुसार संस्कृति के पांच अवयव कर्म, दर्शन, इतिहास, वर्ण तथा रीति-रिवाज है। इस सन्दर्भ में डॉ० सरनाम सिंह शर्मा के विचार द्रष्टव्य है – “सभ्यताओं का विकास और विनाश हो सकता है, धर्मों का उत्थान पतन हो सकता है, पर संस्कृति का मौलिक रूप चिरन्तन और चिर स्थायी है। 14
__ संस्कृति और सभ्यता में काफी अन्तर है, परन्तु वे एक दूसरे से पृथक् नहीं किये जा सकते, क्योंकि राष्ट्र के सांस्कृतिक विकास में उस देश की सभ्यता का चित्र अंकित रहता है। इस प्रकार संस्कृति और सभ्यता के भेद को स्पष्ट करने के लिए इन दोनों को अलग-अलग जानना अति आवश्यक है।
संस्कृति और सभ्यता
प्राचीनकाल में भले ही संस्कृति और सभ्यता एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते रहे हों, परन्तु उनमें आज अन्तर स्वीकार कर लिया
13 कल्याण (पत्रिका), हिन्दू संस्कृति विशेषांक, पृष्ठ -76 14 डॉ० सरनाम सिंह शर्मा - साहित्य सिद्धान्त और समीक्षा, पृष्ठ -21
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