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प्रामाणिक आधार होता है। साहित्य में संस्कृति के जातीय मनोभाव सुरक्षित तो रहते ही हैं, साथ ही साहित्य ने मनुष्य को उस रागात्मक ऐश्वर्य की स्थिति तक पहुँचाया है जहाँ सर्वत्र सुख और शान्ति रहती है तथा मन की कोकिल अपने गीत मधुर स्वरों में गा उठती है।
संस्कृति के अन्तर्गत चेतना और व्यवहार दोनों का सामंजस्य रहता है। व्यवहार आदर्शों का निर्माण करते हैं। चेतना सृजनात्मक क्षमता को सम्प्रेषित करने वाली कला की रचना करती है। सांस्कृतिक चेतना का सृजनात्मक स्वरूप धारण करना विशेष महत्वपूर्ण है। किसी जाति के सृजनात्मक प्रयत्नों का उन्मेष संस्कृति के अन्तर्गत ही होता है। प्रत्येक देश का साहित्य उसके विचारों और भावनाओं के इतिहास से अवगत कराता है।
डॉ० राजेन्द्र प्रसाद का कथन है कि 'साहित्य मानव जाति के उच्च से उच्च और सुन्दर से सुन्दर विचारों तथा भावों का वह गुच्छा है जिसकी बाहरी सुन्दरता और भीतरी सुगन्धि दोनों ही मन मोह लेते हैं। कोई जाति तब तक बड़ी नहीं हो सकती, जब तक उसके भाव और विचार उन्नत न हों। जब भाव और विचार उन्नत होंगे तब उनका विकास उस जाति के साहित्य के रूप में ही हो सकता है।15
साहित्य और संस्कृति संश्लिष्ट है। संस्कृति मनुष्य के धर्मगत वातावरण और संस्कारों से प्रेरित हुआ करती है। मनुष्य के मानसिक आयामों में संस्कृति अपना विस्तृत रूप धारण करती है जिसे साहित्य ही प्रकाश में लाने का कार्य करता है। डॉ० सरनाम सिंह शर्मा ने साहित्य को संस्कृति का इतिहास कहकर उसे अतीत का प्रतिबिम्बि तथा अनागत का प्रदीप माना है। साहित्य एक ऐसा माध्यम है जो
15 डॉ० राजेन्द्र प्रसाद - साहित्य, शिक्षा और संस्कृति, पृष्ठ- 10 16 डॉ० सरनाम सिंह शर्मा - साहित्य सिद्धान्त और समीक्षा, पृष्ठ-19
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