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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातव भाग ]
जब पंगत उठी, तो इस भारी संकट से में छूटा। राम-राम करके, भटपट हाथ वाथ धोकर, बाहर निकलकर, कब घर भाग जाने का मौका मिलेगा, यह सोच रहा था । लेकिन बाहर आता हूँ, तो देखता हूँ, द्वार रोके पानों के थाल लिये लोगों की एक भीड़ खड़ी है ।
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मैं पास आया, तो सुना, किसी ने कहा, "चाचा डालचन्द, बाबूजी को पान दो ।"
मुड़कर देखा, तो कहनेवाला है, “परसादी ।"
डालचन्द ने एक बड़ा-सा बीड़ा देखकर, थाली में से उठाकर, हँसते हुए, मेरे सामने कर दिया ।
झपटकर उसे लेते हुए में दरवाजे से बाहर हो गया ।
पान फेंक देने की कहीं सुविधा मुझे नहीं मिल रही थी; इसलिए उपयुक्त अवसर और स्थान की प्रतीक्षा में में पान के बीड़े को हाथ में ही लिये था, कि चाचा ने कहा, "ज़रा रूमाल देना ।"
मैं बायें हाथ से बायीं तरफ की जेब टटोलने लगा । लेकिन रूमाल था कोट के दायीं तरफ के अन्दर की जेब में ।
चाचा ने कहा, "निकाला ?"
बायें हाथ से उस जेब में से रूमाल निकालने में कठिनता हो रही थी। मैंने झट उस हाथ को खींचकर, उसमें पान लेकर, दाहिना हाथ जेब की तरफ बढ़ाना चाहा ।
इसी समय -- "अरे, अभी तक रूमाल नहीं निकला !" - कहते हुए उन्होंने मेरी ओर मुड़कर मेरी संकटापन्न अवस्था को देख लिया। पूछा, "अरे, हाथ में यह क्या है, पान है ! रख क्यों छोड़ा है, खा क्यों नहीं लेता ?"
मैंने कहा, "मैं खाता नहीं हूँ पान ।"
“ऐं, खाता नहीं है !" - उन्होंने कहा, "खा- खूकर खतम कर । क्या तमाशा बना छोड़ा है ।" यह कहकर जैसे वह मेरे हाथ से लेकर पान मेरे मुह में देने को हो गये ।