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मौत की कहानी
इस परसादी नामक कुलक्षरण व्यक्ति को क्यों एकाएक मेरे श्रातिथ्य के प्रति साग्रह हो उठना चाहिए, यह उस समय मेरे लिये बड़ी दुर्भावनाओं का विषय बन गया । कुछ देर बाद मैंने समझा कि मैंने इसका भेद समझ लिया ।
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इस सफेद पिरामिड के भीतर दबे हु दही-सागर से, इतने लोगों के बीच में बैठकर, मैं क्या करके अपना पिंड छुड़ाऊँ । इसको सोचकर कुछ निश्चय करूँ कि एक नाम पिघले- सीसे की तरह कान में सनसनाता चला गया । किसी ने कहा, "चाचा डालचन्द, बाबूजी को दही दिया है, एक कचौरी तो और दे जाना ।"
मैंने एकदम प्राँ ऊपर उठाकर देखा । डालचन्द ताजा कचौरियों का डल्ला लेकर हँसता हुआ मेरे सामने आया । गोरा-भरा चेहरा था, मजबूत हाथ-पाँव थे । बिलकुल गँवार नहीं मालूम होता था । श्राँखें हँस रही थीं, जाने क्यों हँस रही थीं ।
आकर बोला, "लो बाबूजी, एक कचौरी तो मेरे हाथ की भी लो ।” हाय राम, यह क्या हो रहा है ! मैं कुछ बोल नहीं सका, हाथ पत्तल के ऊपर करके फैला दिये ।
'बाबूजी, यह बात नहीं होगी' — उसने कहा, “एक तो लेनी ही पड़ेगी ।"
और यह कहकर बड़ी तरकीब से एक कचौरी उसने मेरी पत्तल के बीचों-बीच डाल ही दी ।
अब मैं उस कचौरी को लेकर क्या करूँ ? उसे उसी डालचन्द के, वेहयाई से हँसते, चेहरे पर फेंककर मार सकूं, तो ठीक हो जाय; लेकिन इतने बड़े जन-समुदाय से घिर कर - जो अब बड़े सम्मान और आग्रह के साथ मुझ शहरी सभ्य को ही देख रहा था - यह मुझ से किसी तरह भी नहीं बन सका । और में चुपचाप उस कचौरी को एक हाथ से चूर-चूर करके, उसकी एकाध किनकी को बूरे के ढेर से छुना कर मुँह चलाचलाकर खाने का दिखावा करने लगा ।