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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवी भाग ]
उन्होंने कहा, " पास ही एक गाँव है । दूर नहीं है। शहर की दावतें देखी हैं, एक यह भी देखो ।”
बीस रोज़ में एक तो चीज़ मिली, उसे भी छोड़ देता ? - मैं झटपट बिलकुल तैयार हो गया ।
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दावत क्या थी विडम्बना थी । उन गुट्ठल-सी कचौरियों को सामने लाकर कहा जाता 'बाबूजी, यह और लीजिए, बड़ी करारी है, गरमागरम, तो जी होता, उठाकर फेंक दूं । साग में नमक है, तो मिर्च नहीं, और मसालों का तो नाम न लीजिए । बस दही - बूरा, दही - बूरा । ज्योनार क्या थी, दही-बूरा था । वही सपोळे जाओ । और सचमुच लोग ऐसे पट्टे मार रहे थे, कि सुड़ड़सप की आवाज दूर तक सुनाई पड़े ।"
एक ने कहा, "बाबूजी को दही देना, दही ।"
जिससे कहा गया, वह मेरे पास आया ही था, कि चिल्लाया, परसादी, श्री परसादी, वह बूरा उठाता ला ।"
मैं हठात् इस परसादी नाम के आदमी को देखने में लग गया । इधर दही वाले प्रादमी ने ढेर-सा दही पत्तल पर बिखेर दिया |
वह परसादी बूरा लेकर मेरी तरफ श्राया । काला चेहरा है, आँखें सुरुचिपूर्ण नहीं हैं । बाल, अभी कटी दूब से हैं, मूछें घनी - काली हैं ।
मैंने कहा, "मैं बूरा नहीं लूँगा ।"
परसादी ने पस भरकर बूरा पत्तल पर डाल देने का इरादा करते हुए कहा, "बाबूजी, थोड़ा ले लीजिए ।"
मैंने पत्तल को दोनों बाँहों से ढककर कहा, “मैं नहीं लूँगा, नहीं लूँगा।”
." बाबूजी थोड़ा तो लेना ही होगा" - यह कहकर वह पस-भर बूरा उसने वहीं छोड़ दिया । उसमें से कुछ मेरे हाथों पर ना रहा, कुछ जगह पाकर पत्तल में जा गिरा और वह काला मुह लेकर परसादी इस पर हँसने लगा ।