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'मौत की कहानी
तब मैंने स्वयं उसे मुह में ले लिया । चबाना शुरू करना था, कि झट थूक डालने के लिए मुझे कहीं दौड़कर अलग जाना पड़ गया । हलक तक से सारा थूक मैंने बड़े जोर के साथ खखार-खखोर कर निकाल दिया और पास के पेड़ की छाँह में पड़ी एक चारपाई पर लेट गया ।
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सिर चकरा रहा था । बदन में सनसनाहट - सो फैल रही थी। जो में उबकाई आ रही थी और धरती आसमान भूलने लग गया था । सब-कुछ जैसे मुझे बीच में करके मेरे चारों ओर चकराने लगा ।
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अब जैसे सब कुछ ठीक-ठीक समझ में आने लगा । सिर में रुई धुनी जा रही थी, फिर भी विचारों में अद्भुत संगति थी । पागल हो जानेजैसी कोई भी बात नहीं थी । हरेक बात का कार्य-कारण और परिणामसम्बन्ध ठीक मिला करके बैठा सकता था ।
संशय नहीं रहा, कि कूच का वक्त अब प्राया, अब आया । महायात्रा के लिए प्रस्थान करने से पहले जहाँ बैठे हैं, वहाँ से कैसे विदा लेनी चाहिए, यह प्रश्न अपनी स्पष्टता में सामने आ गया । मैं उसी को निश्चित करने में लगा और इधर-उधर की बात कोई भी मुझे तंग करने नहीं आई । घबड़ाहट कुछ नहीं थी, जल्दी बिलकुल नहीं थी । जहर है, क्या है; सम्भव हो सकता है, कि भूल से कहीं कुछ कम ज़हरीला रह गया हो; उपाय की सम्भावना हो सकती है, कम-से-कम वैसी चेष्टा आवश्यक है - प्रादि-आदि विचार मुझे अस्थिर नहीं कर पाये । जाना है, सो किस तरह खूबी के साथ जाया जाय, यही एक विचार मुझे वश में किये था। मेरे चुपचाप उठ जाने की बात क्रमशः माता-पिता, बहनभाई को मालूम हो ही जायगी, इसकी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है । उनके जी में एक कसंकता हुआ प्रभाव रह जायगा — इसका हलका-सा आभास हृदय में क्षरण-भर को उदित हुआ; किन्तु फिर वह विलाप का रूप धारण करेगा, कैसा दारुण विलाप मचेगा — इन सब
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