SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मौत की कहानी ७७ हुआ कि मैं अपना दिन-भर चाची के पास बिताने को खाली पाने लगा। चाची भी मेरे साथ बात-चीत करने को अपने को खाली पाने लगीं। वह होंगी कोई २२-२३ वर्ष की, पढ़ी-लिखी अच्छी थीं और समझदार तो... प्रेमकृष्ण ने बीच ही में कहा, "अब इतनी देर में आई कहानी ! हाँ, पढ़ी-लिखी थीं, और कैसी थीं ?" प्रमोद का स्वर भारी हो पाया। उसने कहा, "कहानी आई नहीं, उनके साथ तो कहानी गई । वह अब नहीं हैं। मैं फिर दुबारा उनके घर पहुँचा, तो शव देखने पहुँचा । मैं समय पर पहुँच जाता, तो प्राशा है, वह मरने न पातीं। वह मुझे बहुत प्यार करती थीं । अपने बेटे को भी इतना न करती होंगी।" प्रेमकृष्ण चुप हो रहे । प्रमोद ने रूमाल मुह पर फेर कर कहना जारी रखा____ "वह बड़ी स्नेहशीला थीं। सबको वह प्यार करती थीं। मैं उनकी बातों को सुनकर अघाता न था; क्योंकि उन सब में उनका स्नेह बहता रहता था। वह अक्सर लाला-देवर-का जिक्र करती थीं। घण्टों हो जाते, लाला की बातों का पार न पाता । उनका अतीत लाला-लाला-लाला से भरा था। एक पग भी उसमें रखतीं कि लाला की किसी-न-किसी बात-से आ ठकरातीं। वह बात फिर जी में विद्रोह मचाती हुई उमड़ आती। और उसके बाद सिलसिला बाँधकर लाला की मूर्ति के साथ जुड़ी हुई और-और सब बातें भी, सिनेमा-चित्रों की भाँति आकर फिरती हुई चली जातीं, और उसी प्रकार कतार बाँधकर आँसू भी ढुलकते चले आते। __मैं कुछ वैसे ही एक बार के साक्षात्कार से, स्वर्गीय छोटे चाचा के प्रति कुछ आर्द्र भाव रखता था। अब वे अत्यन्त कोमल और अत्यन्त दृढ़ हो गये । मैंने उनके चित्र को अपने सामने बिलकुल प्रत्यक्ष कर लिया। उनके जीवन और मृत्यु के प्रत्येक विवरण से मैंने अपने को अवगत कर लिया।
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy