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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग] ____ मैंने जाकर देखा, चाचा उस बड़े-से गाँव में बुरी तरह अकेले रहते हैं। अपने पिता की तरह खर्च करने का शौक उन्हें नहीं है। इसलिए पैसा खर्च कर कुछ मुसाहब-कारिन्दों को भी वह अपने पास नहीं जुटा सके हैं। वह एफ० ए० तक अँगरेजी पढ़े हैं। उसके बल पर अफसरों से । कुछ दोस्ती बना बैठे हैं । और उस दोस्ती के बूते पर छोड़कर और कर्तव्य-परायण होकर अकेले-दम अपनी जमींदारी का काम चलाते हैं । ____यहाँ आकर गाँव में मेरा यह करने और वह करने का इरादा सब मिट्टी हो गया। यहां का हाल-चाल ही कुछ टेढ़ा दिखाई दिया। मैं अपनी सदिच्छाओं को लेकर लोगों के पास पहुँचता, तो उनकी जुबान जाने कहाँ चली जाती । यों दिन-भर हुक्के के चारों ओर खाटों पर बैठ कर कहाँ-कहाँ के कुलावे मिलाया करते होंगे, मेरे जाते ही गुम-सुम हो रहते । मैं जानता हूँ, मैं कोट-पेंट में रहता था, बिलकुल उन्हीं की बोली में मैं बात नहीं कर सकता था। लेकिन क्या वह समझते हैं, उनमें मिलकर काम करने के लिए कोई पूरा उनके जैसा होकर ही रहेगा ? मैंने भी सोचा, अगर नहीं है गरज उन्हें शिक्षा और रोशनी की, तो क्यों मैं व्यर्थ बहुत-सी चिन्ता मोल लेकर हैरान होता फिरूं । मैं फिर अधिकतर घर में रहने लगा। कभी अकेले बागों में, खेतों में सैर करने सुबह-शाम निकल जाया करता।
चाचा ने पैतृक-रूप में दो चीजें खूब प्रचुरता में पाई थीं-एक द्रव्य और दूसरे अदालत-बाज़ी का शौक । दूसरी वस्तु को उन्होंने खूब बढ़ाचढ़ाकर उत्कर्ष पर पहुँचा लिया; इसलिए पहली वस्तु उतनी प्रचुरता में संगृहीत न रह सकी । वह द्रव्य पानी की भांति द्रवित होकर बह-बहकर अदालत के गड्ढे में जा गिरने लगा। और उस गड्ढे के पानी में उसके चारों ओर बसने वाले जीव, टर्र-टर्र करते हुए, उसे भर-प्यास पी-पीकर, खूब स्थूल होने लगे। .
चाचा के उस अदालतबाजी के शौक का मेरे हित में यह परिणाम