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मौत की कहानी
७५ हैं, तो मुझे अचरज के साथ प्रसन्नता भी हुई। दिल्ली शहर में रहता था
और जाने गाँधी-वांधी किस-किसकी किताबें पढ़ता था; इसलिए गाँव की... भूख जी में बड़ी लगी रहती थी। चाचा के गांव में रहने की बात क्या । सामने आ गई, भूखे के सामने परसी-परसाई थाली आ पहुँची। और . साथ ही, उसके साथ बड़े प्यार का खानो-खाओ का अनुरोध भी आया।
वह बात यों हुई थी
हमारे घरों में यों तो आना-जाना लगभग नहीं था। चिट्ठी-पत्री भी नहीं आती-जाती थी। फिर भी आत्मीयता थी । ऐसी भी आत्मीयता होती है, जो आने-जाने, चिट्ठी-पत्री के व्यवहार पर टिक कर ही नहीं जीती। वह बिना इस सहारे के यों ही सदा हरी रहती है । सो एक दिन उनमें से बड़े चाचा की चिट्ठी आई कि छोटे भाई को दुश्मनों ने लाठी से बड़ा मारा है, बच जाय तो खैर समझो, नहीं तो उम्मीद बिलकुल नहीं है। पिता आदि को तुरन्त पाने के लिए लिखा था। हम लोगों को भी साथ बुलाया था। पिताजी खबर पाते ही फौरन चले गये, और स्त्री-वर्ग ने रोना प्रारम्भ किया। मुझे मेरी माता से यह भी मालूम हो गया कि अभी एक महीना पहले घर आकर जो मुझे खूब बाजार की सैर-वैर कराने ले गये थे, और जिन्होंने मुझे तरह-तरह की चीजें खिलाकर और तमाशे दिखाकर मेरी खूब खातिर की थी, वह वही मेरे छोटे चाचा थे, जिनके मारे जाने की खबर आई है । उनकी याद तो मुझे खूब थी। वही चाचा थे और उनको ही दुश्मनों ने मारा है, यह मालूम करके मेरा जी भर कर फूट चला और मैं एकान्त में जाकर रोने लगा।
फिर वह मर गये, अच्छे नहीं हो सके। वह कालिज में एम० ए० में पढ़ते थे। और हम में अपने में किसी तरह का अन्तर नहीं मानते थे।
अगले वर्ष की गर्मी की छुट्टियों में में अपने चाचा के पास गया । बस, अब मैं कहानी पर आ गया हूँ। सुनिए।।