SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिर-धड़ तो हरेक में होता है । वास्तव में वह पूछ ही से लंगूर है, बाकी सब व्यर्थ की बात है । यही कहानी की बात है । भूमिका..." "मैं बाज़ आया ऐसे टोकने से ।" मैंने कहा, "अच्छा-अच्छा, बाबा, जैसी मर्जी हो तुम्हारी, कहो । नया लेक्चर मत शुरू करो।"... उसने बिना रुके कहना जारी रखा-"पाप उकताते हैं, तो मैं छोड़ देता हूँ। लेकिन फिर आपके पछताने का में दोषी नहीं हूँगा । मैं अब बात पर ही पा रहा हूँ। हाँ, तो हमसे कटे हुए हमारे दादा मेरे दो चाचा छोड़ गये। घबड़ाएँ नहीं। यहां एक बात और कहूँगा। जबकी बात कहता हूँ, उससे एक साल पहले तक इन चाचाओं के अस्तित्व का मुझे पता भी नहीं था। बात यह थी कि हमारे दादा दो भाई थे। छोटे भाई की बहू शादी के दो साल बाद मर गई । अब दूसरे ब्याह के लिए बिरादरी में लड़की न मिली। हार कर हमारे सगे दादा ने छोटे भाई को ब्याह बिरादरी छोड़कर कर दिया। नतीजा यह हुआ कि हमारे परदादा जात से खारिज हो गये । खैर, वह तो दण्ड-वण्ड देकर और दो-एक ज्योनार देकर फिर जात-बिरादरी में आ गये। छोटे दादा को काट कर ऐसा अलग कर दिया गया, कि उनसे सम्बन्ध रखना पातक होगया। बिरादरी के लोग इस पर कड़ी निगाह रखने लगे कि वे लोग आपस में खान-पान तो एक नहीं करते । उनकी निगाह बचाकर सम्बन्ध कैसे बनाया रखा जा सके ? घर से टूट कर आखिर और कहीं उन छोटे दादा को अपना बसेरा बना लेने को लाचार होना पड़ गया। ऐसी ही हालत में भटकभटका कर वह आगरा जिले के उस गाँव में जा पहुंचे थे। वहाँ, जिस तरह वह जमींदार बन बैठे, यह आपको मालूम हो ही गया है। हम सब बच्चों को उन चाचा-दादा के अस्तित्व के बारे में चिन्तापूर्वक बिलकुल अँधेरे में रखा जाता था। इसलिए पिछले साल जब मुझे एकदम पता चला कि हमारे एक चाचा है, जो गांव में रहते हैं, जमींदार
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy