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. मौत की कहानी
यह है कि वह सब शक्ति, जो बाहर से जमा हो सकती थी, उसके पैसे के नीचे आकर इकट्ठी हो गई । वस्तुतः वही सब पराई शक्ति वैश्य के पैसे से पुष्ट होकर वहाँ राज्य करती थी। मेरे चाचा के वह पिता तो अपनी निज की भीतरी शक्ति के अभाव में बेचारे राज्य क्या करते थे, उस राज्य के विस्तार में कैद होकर अपनी जान के लिए डरते-डरते दिन बिताते थे । जो उन्होंने जमा कर पाया था, उसका बहुत-सा भाग उसको कायम रखने के लिए, और उसके कारण जो डर उन्होंने अपने चारों तरफ खड़ा कर लिया था, उससे अपने को बचाने के लिए उन्हें खर्च करना पड़ता था। लेकिन जो डर भीतर है, उससे बचने के लिए लट्ठ लेकर बाहर आदमी को खड़ा कर देने से तो काम नहीं चल सकता। इससे हर तो उनका जाता नहीं था, हां, अपनी आय के इस तीन-चौथाई खर्च-से परमुखापेक्षिता उनके हाथ अवश्य आती थी।
लेकिन एक तरह के वह दबंग आदमी थे और चतुर थे। वाणी में एक प्रकार का प्रभुत्व था । भीतर खटका रहता था, पर बाहर-से ऐसे निश्शंक होकर, डाँटकर बोलते थे, कि सबको दबदबा मानना पड़ता था। इसलिए वह तो ठीक तौर से चालीस बरस की अवस्था में मर गये। वह स्थूलकाय थे, भीतर लगे डर के कीड़े को दस बरस तक उनके कलेवर में से खाद्य मिलता रहा। अन्त में उसने चालीस बरस की अवस्था में बिलकुल खोखला करके उन्हें गिरा दिया और इस संसार से बिदा कर दिया।
.. पीछे छोड़ गये दो लड़के ।
"क्या ? कहानी कहूँ ? भूमिका की जरूरत नहीं है ?" मेरे टोकने पर मेरी ओर मुड़कर उसने कहा, "भूमिका के बिना तो कुछ हो ही नहीं सकता । वह तो बड़ी जरूरी चीज है, जैसे लंगूर को पूछ उसके लिए बड़ी जरूरी है । उसके पूछ न हो, तो आप समझते हैं, वह कूदता-फाँदता रह सकता है ? लंगूर तो वह दरअसल पूछ के कारण ही है, नहीं तो