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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग]
रखा था।
__ मेरे एक दूर के चाचा थे । वह गाँव के जमींदार थे, वहीं रहते थे। दाँतों के बीच में जैसे जीभ रहे, वैसे ही मानों अपनी कुशलता के बल पर वह वहाँ रह पाते थे। उनके पिता ने कहीं दूर देश से पाकर अपने एक मित्र की सहायता पर भरोसा रख कर, असम्पन्न दशा में वहाँ पैर रखा था । वह साथ कौन भाग्य लाये थे, कि जहाँ कृपाप्रार्थी और कृपाजीवी होकर पैर-भर रखने की उन्होंने जगह पाई थी, वहाँ ही हवेली उठकर खड़ी हो गई । और इसके साथ ही उनके मित्र, जो वहाँ के जमींदार थे, उनका सब-कुछ गिरने लग गया । होते-होते यह मित्र हाल-बे-हाल हो गये, और मेरे चाचा के पिता, बिस्वा-बिस्वा होते, गाँवों के बीसों बिस्वे जमींदार हो चले । पुरानी ब्राह्मणों की अमलदारी और जमींदारी उखड़कर वहाँ बिना किसी उत्पात के एक बनिये की अमलदारी कायम होने लगी, तो गाँव के कुछ वृद्ध ब्राह्मण पुरुष चेते । उन्होंने दल बनाकर कटिबद्ध होकर इस वैश्य-पुत्र का मुकाबला करने का निश्चय कर लिया; पर उनकी प्रमत्तावस्था में युग-धर्म ने ब्राह्मण-वृत्ति को तलाक देकर वैश्य-वृत्ति को वरण कर लिया है-यह उनको पता नहीं था। इस गाँव में ही नहीं, और बड़ी-बड़ी जगह आकर बनियों ने सिंहासन पर अपना स्थान बना लिया है, और उन्होंने बड़ी-बड़ी अदालतें और बड़ी-बड़ी चीजें खड़ी कर दी हैं, इसका भेद भी उन्हें अच्छी तरह नहीं मालूम था। इस लिए इस अज्ञानता में उस ब्राह्मण-दल ने जो-कुछ किया, अदालत आदि बहुत-सी बाहरी वस्तु ( Factors) बीच में आ जाने के कारण ऐसा कुछ हुआ कि वह उन्हीं के मुंह पर पाकर पड़ा। वैश्य-पुत्र के झूठे मामले भी सच्चे होने लगे, और उन्हें अपनी मौरूसी जमीन से बेदखल होना पड़ा। इधर उनके सच्चे मामले भी चित्त पड़ने लगे । इसका परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मण-दल चुप हो बैठा-खुलकर वैध-रूप से कुछ कर पाने की प्राशा छोड़ बैठा । और अकेला एक वैश्य सर्व-शक्तिमान् होकर वहाँ राज्य करने लगा। सर्व-शक्तिमान् होने से मेरा मतलब