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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवा भाग] लीलावती हैं, उनके भीतर एक और है, उसका नाम है लिली । वह पतिदेव की नहीं है, वह जाने किस,-और की है । अरे ओ मेरे स्वामी, मैंने उस लिली को कुचल-कुचल कर मिटा देना चाहा है, पर वह नहीं मिटी है,-नहीं मिटी है। मैंने यह तुमसे कह दिया है । अब जो कहो, वही करूं।
पर सदानन्द, अपने विश्वासी पति की चिरप्रसन्न मुद्रा देखकर मेरी हिम्मत टूट जाती है । मैं उस निर्मल प्रसन्नता को कैसे तोड़ें ? जहाँ खिलखिलाती धूप ही भरी है, काला बादल कहीं भी कोई नहीं है, उस स्वच्छ आकाश को कैसे एक साथ अपने मैल के स्फोट से विक्षुब्ध कर हूँ ? यह मुश्किल है । मुझसे नहीं होता, नहीं होता।
लेकिन हाय, अपने भीतर का यह बोझ भी कैसे ढोऊँ ? कब तक ढोऊँ ? सदानन्द, जी में होता है एक दिन सबेरे उठकर अपने पति पर अनगिनत लांछन लगा डालू, अपने मन को उनके प्रति कालिमा से भर लू और अपने प्रति बलात्कार-पूर्वक कह दूं, 'तुम्हारा-सा पति मैं नहीं सह सकती, इसलिए मैं जाती हूँ, और इस घर की छाया को छोड़कर चल हूँ।
सदानन्द, तुम मुझे समझो । मेरी सारी व्यथा यह है कि क्यों मेरे पति इतने निश्छल, इतने उदार, इतने स्वरूपवान् हैं ? क्यों वह मझ पर इतने विश्वासी, इतने स्नेही हैं ? क्यों वह इतने कृपालु हैं ? मेरे लिये सदानन्द, पति-कृपा असह्य हुई जा रही है । जब से मैंने जाना है कि उन्होंने तुमको पाँच हजार रुपये देकर बम्बई भेजा है, तब से मैं बेहद विक्षुब्ध हूँ। वह मुझे क्यों यों सताते हैं ? मुझे मालूम होता तो मैं एक पैसा नहीं देने देती । तुम्हें क्या है, राग न शोक । तुम्हारे लिए चाहे पाँच हज़ार ऐसे हों जैसे पाँच कौड़ी, लेकिन, मेरे मन पर तो वे जैसे मेरी ही कब्र का पत्थर बन कर बैठ गये हैं। तुम बताओ, ऐसे पति को मैं पति कैसे मानू जो मुझे इतनी तकलीफ़ दे सकता है ? सदानन्द, तुम उनको लिखो कि में अयोग्य हूँ। नाम से नहीं तो गुम नाम पत्र से ही उन्हें मेरे