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कुछ उलझन
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और सबकी सेवा का अधिकार मुझे प्राप्त है । कहते हैं, सब विधाता का विधान है। विधाता को में नहीं जानती । पर उसी का विधान होगा । और नहीं तो किसका है ? उसी की यह दुनिया है । हमारे मन की यह कब है ? यों ही यह चलती है, यों ही चलेंगी। लेकिन मेरी तबीयत कभी-कभी बहुत घबरा जाती है, बहुत घबरा जाती है ।
नन्द,
सदानन्द, बताओ, क्या वह विधान सब ठीक है ? क्या आनन भू था ? क्या वे दिन झूठे थे ? क्या लिली मिथ्या थी ? फिर वे दिन प्यारे क्यों लगते थे ? फिर क्यों एक-दूसरे के लिए मरने के अर्थ जीने में भी हमें हर्ष मालूम होता था ? तब समय रंगीन क्यों बन गया था और जगत् क्यों सुखमय ? तब सब कुछ हँसता-सा क्यों दीखता था ? सदानन्द उन दिनों पर वर्षों की तह पर तह जम गई हैं, लेकिन उन सबके नीचे क्या वे दिन हरियाले लहलहाते हुए अब भी जी ही नहीं रहे हैं ? सदामैं आज 'श्रीमती लीलावती' हूँ, और तुम्हारे समक्ष भी अब कहती हूं कि मेरे भीतर वह 'लिली' भी है और वह सदा रहेगी। आज की धर्मपत्नी लीलावती से तनिक भी कम वास्तव नहीं है वह लिली । शायद है कि अधिक सत्य वह ही । सदानन्द मुझे बताओ कि इस अपने भीतर के अत्यन्त सत्य को क्या पतिदेव के प्रोट में ही सदा रखना होगा ? पाँच वर्ष से इस जीवन्त धड़कते हुए सत्य को अपने भीतर लिये ही लिये इस घर में जी रही हूँ ! इधर अब यह मेरे लिए दूभर हो चला है । मेरे पति को तुम जानते हो । कैसे स्नेही हैं, कैसे सीधे हैं, कितने परायण हैं । लेकिन में इधर उनसे बहुत लड़ने लगी हूँ । उन्हें देखकर जी स्वस्थ रहता ही नहीं । वह हँसते हैं तो मैं कुढ़ती हूँ । जी होता है, श्ररे में मर क्यों न गई । सदानन्द, तुम विरागी हो, मुझे बताओ कि क्या ज़िन्दगी के एकएक दिन ऐसे ही जीने होंगे ? मैं तुम्हारे प्रत्यन्त प्रियबन्धु, — अपने पति से बहुत अनमनी-सी रहने लगी हूँ । जब-तब तकरार खड़ी करती रहती हूँ, जिससे कि कोई क्षण तो ऐसा बने कि मैं आवेश में भूल जाऊँ और कह पडू" कि पूर्ण सत्य क्या है । कह दूँ कि जो सती पतिव्रता देवी