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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग
लखनऊ, १० अक्तूबर मेरे आनन, ( मैं तुम्हें और क्या कहूँ ? )
आज बम्बई का तुम्हारा पता मुझे मालूम हुआ तब यह पत्र तुम्हें लिख रही हूँ। उनसे पूछ कर लिख रही हूँ। उन्होंने कहा है, जरूर लिखो। वह जानते हैं कि मैं उनकी मार्फत तुम्हें जानती हूँ। मैंने उन्हें नहीं कहा कि ऐसा नहीं है। सदानन्द, यह कैसी विडम्बना है ! सदानन्द, प्राज मेरा मन अशान्त है । बेहद प्रशान्त है । - मेरे विवाह को पाँच वर्ष से ऊपर हो गये हैं। तब से मैंने तुम्हें कभी पत्र नहीं लिखा । कभी चाहा कि तुम से मिलू? कभी नहीं चाहा । चाह कर भी मैं क्या पाती ? मैं जानती थी कि तुम नहीं पायोगे । मैं यह भी जानती थी कि तुमको नहीं आना चाहिए । पत्र लिखती तो क्या तुम उसका उत्तर देने वाले थे ? क्या इस पत्र का भी तुम उत्तर दोगे ? और मुझे इससे दुःख नहीं है । इस ज्ञान में मुझे सुख है कि तुम दूर रहते हो, अप्राप्य रहते हो । क्या इसीलिए नहीं कि कहीं भीतर तुम मुझे पास भी पाते हो ? मैं याद में हूँ तो मुझे भूलने की कोशिश कैसी ? इसलिए तुम्हारे समाचार का चिरन्तन प्रभाव, तुम्हारा अभाव, मुझे सुख देता रहता है कि तुम्हारे भीतर मैं हूँ, अभी भी वहां से निकली नहीं हूँ। और आज यही सुख मेरा सबसे बड़ा भारी दुःख है । में यह जानकर क्यों सुखी होती हूँ कि तुम मुझे याद रख रहे हो ?
देखो सदानन्द, वे दिन अब नहीं हैं जब मैं लिली थी और तुम आनन हुआ करते थे। मैं आज गिरिस्तिन हूँ, तुम विरागी हो। मैं पतिव्रता हूँ, तुम ब्रह्मचारी हो । मैं घर में हूँ, तुम वन में हो । मैं दायित्वों में हूँ, तुम निर्द्वन्द्व हो । दुनिया में अपनी जगह मैं हूँ, तुम्हारी जगह तुम हो। सदानन्द, तुम मेरे लिए नहीं मैं तुम्हारे लिए नहीं। तुम अपने लिए हो और मुझे छोड़ सबके लिए हो। यही हाल मेरा है। बस, तुम्हारी हो नहीं