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कुछ उलझन
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घास थी, पौधे थे, पेड़ थे, पक्षी थे । इन सबके बीच मैंने अपने को कभी अकेला नहीं पाया । फिर क्यों और कैसा यह तुम्हारा आग्रह कि मैं जनसंकुल इस बम्बई में रहूँ । तुमने समझा हो कि शायद तुम मुझे अपने अकेलेपन से बचा रहे हो । पर मैं अकेला कभी था नहीं, कभी होऊँगा भी नहीं । क्योंकि, शून्य को भी अपना साथी बना लिया जा सकता है । लेकिन क्या तुम सचमुच समझते हो कि इस बम्बई में और उस हिमालय की तराई के जंगल में बहुत अन्तर है ? अन्तर तो है, पर वह बहुत नहीं है । वह अन्तर इतना ही है कि वहाँ आदमियों की न होकर पेड़ों की भीड़ थी । पेड़ क्या कम जीते हैं ? क्या वे कम विचित्र हैं ? क्या वे कम दुष्ट और अधिक साधु होते हैं ? हाँ, वे कोलाहल श्रवश्य इतना नहीं करते हैं और भागते भी नहीं फिरते हैं । लेकिन, उनकी भीड़ कब मनुष्य को निश्चिन्त छोड़ना चाहती है ? में, श्याम, तुमको यही कहना चाहता हूँ कि मैं बम्बई आ गया हूँ, इसमें मेरे लिए कोई विशेष व्याकुलता की बात नहीं हैं | आदमियों की दुनिया में मिलने-जुलने के अदब- कायदे हुआ करते हैं | उनसे जरा कम परिचित हूँ, इसे ही प्रसुविधा समझो तो समझो; नहीं तो यहाँ मेरे साथ सब ठीक है । इस वक्त एक होटल में ठहरा हूँ, जिसमें सिर्फ़ बीस रुपये रोज मुझे देना होता है । वह बीस रुपये दे डालता हूँ और रोज रात को यह पा लेता हूँ कि मैं वैसा ही एक, वैसा ही स्वतन्त्र, वैसा ही स्वयं हूँ, जैसा जंगल में था । मुझे पूछने दो श्याम, कि जब यहाँ विशेष सुविधा मुझे नहीं है तब मुझको इस बम्बई के बीच पाने के श्राग्रह में तुम क्यों व-जिद हो ? मैं जानता हूँ कि तुम ऐसे बहुत पैसे वाले भी नहीं हो । तब तुमने क्यों हठ- पूर्वक मेरे पल्ले पाँच हजार रुपये बाँध दिये, कि मैं बम्बई जाकर उन्हें खर्च कर डालू ? मैंने भी यह 'पाँच हजार रुपयों का बोझ तुमसे ले लिया और निरापद भाव से उन्हें यहाँ खर्च कर दूँगा। तुम्हारी मनचीती होने में मैं क्यों बाधक बनू ? मैं सच कह रहा हूँ कि मुझे इसमें दुःख नहीं है । लेकिन, मुझे इस बोध का भी सुख नहीं है कि इस मेरे सुखाभास में तुम्हें