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जैनेन्द्र की कहानियाँ [ सातवी भाग ]
एक क्षरण को भी
सुख मिल रहा है । रात को जब सोता हूँ, यहाँ चारों श्रोर शोर रहता है । वहाँ सन्नाटा रहता था । वहाँ मेरे स्वप्न निर्बाध प्राते और वैसे ही निर्बाध चले जाते थे । यह कहने का मतलब यह न समझना कि मुझे अपनी उस निर्जनता की याद कसकती है, या कि मैं यह सोचता हूँ कि तुमसे पाँच हजार रुपये लेकर मैंने तुमको क्यों प्रभारी बनाया । कहने का मतलब सिर्फ़ इतना ही है, श्याम, कि तुम और भी पक्के होकर समझ लो कि पैसा दुनिया में निकम्मी चीज़ नहीं है । मैं एक महीने में एक हजार से ज्यादा खर्च नहीं करूँगा । एक हजार का खर्च क्या तुम मेरे लिए और अपने लिए भी काफ़ी नहीं समझते हो ? तुम क्यों नहीं मेरी इस बात को मान लो कि एक हज़ार उड़ा देकर मैं लौट जाऊँ, शेष चार हजार तुम्हारे तुम्हें सौंपू, और फिर वहीं अपने जङ्गली बसेरे पर पहुँच जाऊँ । मुझे श्राशा करने दो, श्याम, कि तुम समझदार हो । तुम मुझसे कुछ बरस छोटे हो, यही समझकर मैं तुम्हारे रुपयों को अस्वीकार न कर सका था । यही देखकर मैंने तुम्हारी बात नहीं तोड़ी । मैं तुम्हारे लिए और भी ज्यादा कर सकता हूँ। अगर
तुम्हारे पास कुल पचास हजार रुपया हो और वह सब का सब भी तुम
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मुझे लुटाने के लिए देना चाहो तो मैं ले लूँगा और लुटा डालूँगा । दानपुण्य में नहीं, मात्र अपने पर लुटा डालूँगा । लेकिन इस ढङ्ग से मुझ द्वारा मिली हुई तुम्हारी तृप्ति तुम्हारी अपनी ही तृप्ति नहीं बनेगी । इसलिए एक हद तक ही वैसा सन्तोष मैं तुम्हें मिलने देना चाहता हूँ ।
यह कहने की जरूरत नहीं कि तुम्हारी इच्छानुरूप मैं अब ढङ्ग के कपड़ों में रहता हूँ | सूट-बूट सब ठीक किये ले रहा हूँ । यहाँ की सोसायटी में भी प्रवेश कर लूँगा । जो होगा उसकी सूचना समय - पमय
मेरी एक महीने
पर तुम्हें देता रहूँगा । लेकिन, मुझे आशा करने दो कि की सांसारिकता से तुम्हें तृप्ति हो जायगी । देखो भाई, श्याम, तुम्हारे चार हजार रुपये मुझे तुम्हें लौटा देने दो । रुपया बहुत काम आता है । एक यही उस रुपये की चरितार्थता नहीं है कि वह मुझ पर खर्च हो । मैं