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कुछ उलझन
१ :
श्याम,
लो, में बम्बई आ गया । प्राज मुझे यहाँ चौथा रोज है । तुम शायद समझते होगे, में लिखूँगा कि बम्बई मुझे नरक मालूम होता है । ऐसा नहीं है । नरक की कोई बात नहीं । आदमी बेचारा है और लाखों की तादाद में इकट्ठा हो जाने पर भी उसमें यह सामर्थ्य नहीं कि वह अपने मन के बाहर कहीं नरक पैदा कर सके । तुमने कहा कि मैं बम्बई रहूँ । वहाँ जो भागा-भागी और ग्रापा-धापी मची हुई है, उसके स्पर्श में पड़ । तुम जानते थे कि मुझ में योग्यता है, तब प्रमाद भी है । और शायद तुम्हें भरोसा था कि चारों ओर से स्पर्द्धा के दबाव में पड़कर प्रमाद उड़ जायगा और मेरे भीतर की योग्यता निखर उठेगी । में नहीं जानता प्रमाद मुझ में कितना है । अगर वह है तो फिर अगाध है और प्रकारण नहीं है । खैर, वह होगा। अभी यहाँ के व्यग्र जीवन के आवर्त चक्रों में तो यद्यपि मैं नहीं गया हूँ, फिर भी उस जीवन के प्रवाह में उतर चला हूँ । उस धारा के बीच अपने को स्थिर रखने में कठिनाई मुझे होती नहीं लगती है ।
श्याम, मैं अपने जङ्गल में रहता था। वहीं कुछ मैं ही थोड़े था— ५४