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सोद्देश्य
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सोच रहा था, "मो, अपरिचित प्राण मेरे ।" मैं, जिसको अपना बनाकर और फिर अपरिचित कहकर पुकारा गया है, वह क्या मैं ही नहीं हूँ ! ___“जाती हूँ।" कहकर वीणा वहाँ से जाने लगी तो पार्द्र कण्ठ से किशोर बोला, "वीणा !"
किन्तु वीणा उधर से पीठ मोड़कर चली जा रही थी।
किशोर कागज सामने बिछाकर कविता पढ़ने लगा। पढ़ते-पढ़ते वह खो गया। कब उसमें आँसू भर आए, उसे पता न था। जब टप-टप , टपक कर कविता की स्याही उन्होंने फैला दी, तब उसे चेत हुआ। आँसू । पोंछे । उसे किसी तरह निश्चय न हो रहा था कि कविता का अपरिचित प्राण, जिससे बिछुड़ा इसलिए जा रहा है कि बिछुड़ना सम्भव ही नहीं है, जो इतना अपना है कि अपरिचित होना सह सकता है, वह क्या मैं ही नहीं हूँ !
उसने कविता के कागज़ को अोठों से लगाकर अपने ही आँसू को पी लिया। उसे लग रहा था कि कविता में शब्द नहीं है, वाक्य नहीं हैं, छन्द नहीं, अर्थ नहीं हैं, उन सबके पार कुछ है, जिससे उसे छुटकारा नहीं मिलेगा।