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जैनेन्द्र की कहानियां [सातवां भाग "और तुझे खबर भी है, शाम को चौक से वे लोग आने वाले हैं !" "हाँ, खबर है।" "तो आ रही है न ?" "अभी पाती हूँ।"
माँ चली गई । खुछ देर दोनों चुप बने रहे। फिर किशोर ने पूछा, "कौन पाने वाले हैं ?"
"कोई नहीं।" "तो भी कौन ?" "कह तो रही हूँ, कोई नहीं।" "नहीं वीणा, ठीक बताओ, कौन पा रहा है ?" "मुझे देखने कोई आ रहे हैं।" किशोर झिझका । वीरणा का चेहरा प्रसन्न न था।
उत्साहित होकर किशोर ने कहा, "वीणा, हम किसी की सम्पत्ति नहीं हैं। हमें पढ़ाने-लिखाने की किसी ने भूल की है तो क्या यही परिणाम न होना चाहिए कि हम कहें, हमारे अपने विचार हैं और हमारा अपना रास्ता है। शिक्षा ने हमारी आँखें खोली हैं तो हम अन्धे बनकर रूढ़ियों के चक्कर में कैसे चल सकते हैं ? वीणा, तुम कमजोर नहीं होगी!" कहतेकहते किशोर ने वीणा का हाथ पकड़ लिया, “तुमसे हमें बहुत प्राशाएँ हैं, और मैं...मैं ...!"
वीणा ने क्षणेक अपना हाथ वहां रहने दिया और बोली, "मैंने कल एक कविता लिखी थी," और अन्दर की जेब से कागज निकालते हुए कहा, "देखो !"
किशोर ने कागज लिया और खोलावीणा ने कहा, "अब मैं जाती हूँ।"
सुनकर, सिर उठाकर, उसने वीणा को देखा। कागज खोलते हुए अनायास ही कविता की ऊपर की पंक्ति उसमें उतर गई थी। और वह