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टकराहट
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लीला-(एकदम अलग खड़ी होकर) प्रोः, यह क्या करते हो ? आश्रम है, यह पाश्रम है ! यहाँ में प्रभु की हूँ । कैलाश बाबू मुझ पर विश्वास करते हैं । चार्ली, तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ। ___ चार्ल्स-मुझे माफ़ करो। लेकिन सच तुम्हें क्या हो गया है, लिली ?
लीला-मैं नहीं कहती मैं यहाँ से नहीं जाऊँगी। लेकिन जब तक यहाँ हूँ, मुझ से दूर रहो। मैं तुम्हारे पैरों पढ़ती हूँ। (सहसा, स्तम्भित, सामने देखती रह जाती है । ) प्रोः ! - चार्ल्स-क्या हुआ ?
लीला--(चित्र-लिखी-सी) उन्होंने देखा तो नहीं ? चार्ल्स-कौन ? किसने ? लीला-कैलाश बाबू आ रहे हैं। चार्ल्स-(मुड़कर देखते हुए) आने दो।
कैलाश-(पास आकर) लो, तुम दोनों यहाँ अच्छे मिले । लीला, इनको भी हिन्दुस्तानी बनाने का इरादा है कि नहीं। चार्ली, यह तो ठेठ भारतीय बनने की ठान चुकी मालूम होती हैं। क्यों लीला ?
चार्ल्स-कोई अपने को कहाँ तक बदल सकता है।
कैलाश– (हँसकर) यह तो लीला बतलायगी । यह भी ठीक है कि मनुष्य अपने को नहीं बदल सकता। वह प्रात्म-खण्ड है। लाख कोशिश पर भी कुछ और नहीं हो सकता। क्यों लिली ? चार्ली, तुम आश्रम के और भाई-बहनों से मिले ?
चार्ल्स-कुछ से मिला। मैं इस सबसे सहमत नहीं हूँ। आप यहाँ मनुष्य की शक्ति कम करते हैं। ___ कैलाश-(हँसकर) संशोधन सुझाइए । मैं तो सीखना चाहता हूँ। मुझे ऐसे ही लोग चाहिएँ जो जल्दी सन्तुष्ट न हों, निर्मम आलोचक । लेकिन अभी तो-लीला, तुम्हारी दरख्वास्त नामंजूर होती है।