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जैनेन्द्र की कहानियां सातवाँ भाग चार्ल्स-मुझसे इस तरह की बातें न करो। लीला-मेरा तन मलिन है।
चार्ल्स-चुप करो। बको मत । मैं देवियों में विश्वास नहीं करता। वह बात बार-बार कह कर मेरा अपमान क्यों करती हो ? मैं बड़ा पवित्र हूँ न !
लीला-हागर्थ को तम जानते हो ? विलियम को तुम जानते हो? में सब तुमसे कह चुकी हूँ। उन सबके प्रति प्रकृतज्ञ भी मैं कैसे बन ? चार्ली, तुम इतने समझदार, इतने नेक-मुझ व्यभिचारिणी को तुम दुतकार क्यों नहीं देते । मुझे नरक के लिए छोड़ दो। विवाह मेरे लिए नरक है और तुम-जैसों का प्रेम मेरे लिए यातना है। उस प्रेम का प्रतिदान मेरे दिए दिया जायगा ? इसी से कहती हूँ, चार्ली, मुझे इस आश्रम की कठोरता से अलग न करो। ___ चार्ल्स-(लीला का हाथ पकड़कर) क्या तुम ईश्वर के सामने कह सकती हो कि मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं हूँ, कि में तुम्हारा ही नहीं है ? तब तुम मुझे स्वीकार करने से विमुख कैसे हो सकती हो ? लिली, मुझे यहाँ का सब-कुछ अमानवी मालूम होता है । यहाँ एक मनुष्य है, वह कैलाश, और वह महान् है। लेकिन उसका यह आश्रम तो Subhumans का कारखाना है । चलो, यहाँ से चलो। मैं तुम्हें ले चलू"गा। क्या तुम्हें चाहिए ? जो धन दे सकता है, वह मैं दे सकता हूँ। हम दोनों सागरों पर बिहरेंगे और हवा में तिरेंगे। प्रेम का देवता हम दोनों के साथ रहेगा। जगत् के सब धन्धे दूर रहेंगे। मेरे पास बहुत काफी है। कोई प्रभाव पास फटकने न पायगा। चलो, लिली, चलो। [ लीला का हाथ चूमता है, जिस पर मानो वह नीली पड़ पाती है। वह अपने हाथ को एक-दम खींच लेती है और भौंचक चार्ल्स ।
को देखती रह जाती है।] चार्ल्स लिली ! प्यारी लिली ! प्रो मेरी अपनी लिली !