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वह चेहरा
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आ घिरते और मैं, मकान की तिमंजिली छत पर बादलों की आगवानी पर बिना डैने-मारे, समतोल उड़ती हुई चीलों को देखने ऊपर आ पहुँचता। विश्वास मानिये, चीलों को ही देखता। नहीं, नहीं, देखता उस चेहरे को, जो अक्सर पास वाली छत पर कभी फर्श पर झुके, कभी सामने के सूने में टक लगाये और कभी उमड़ती-घुमड़ती घटाओं में लीन यहाँ से वहाँ डोलता रहता । उस समय उस चेहरे पर कुछ न होता, न हँसो, न मुस्कान । एक भीगी उदासी उस पर पुती होती। एक गहरा अनमनापन, जाने कैसी मटमैली स्याही में उस पर लिखा होता। लेकिन मैं कहता हूँ कि यह मैं देखता नहीं। देखता था तो बिना आँख देखता था। अाँख बरबस कभी उठती तो तत्क्षण मैं उसे गिरा लेता। रानी भी नहीं देखती थी, क्योंकि वह भी उठती आँख को उठा न पाती, कि तभी गिरा लेती। मैंने बिना ठीक तरह देखे उस उदासी की प्रनमनी स्याही के अक्षरों की भाषा को पढ़ना और समझना चाहा। पर अक्षर खो जाते थे, भाषा लिप-पुत. जाती थी, और अर्थ हाथ पाने से रह जाता था। ___ सहसा देखा कि जूड़ा खुल गया है । प्रोफ़् ! जैसे सब-कुछ उन बालों में ढक गया। सिर से लेकर एड़ी...लेकिन नहीं, एड़ी बाकी रही ; क्योंकि उन एड़ियों के बल वह टहलती रही। उन एड़ियों के आगे पाँवों में उँगलियाँ होंगी, लेकिन वे उँगलियाँ मुझे दीखी न. थीं; क्योंकि वे मेरी ओर न थीं, और साड़ी की किनार में वह छिप-छिप जाती थीं। चलतेचलते देखा, वह एक खटोले पर बैठ गई । बैठ कर किताब खोल ली जो अब तक बन्द थी। किताब खुली कि उनकी निगाह..."हाय राम !".... फौरन झुक कर कोयला लेकर छत के फर्श पर मैं एलजब्र का सवाल निकालने में लग गया। सवाल बेहद, बेहद मुश्किल था। अवश्य वो त्रिकाल में हल नहीं हो सकता। क्योंकि इन चालीस बरसों के अन्तराल में उसकी कठिनाई किसी भी ओर से अब तक तनिक कम नहीं हो पाई है।