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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग ].
लेकिन यह क्या ? यह कौन है ? पता नहीं में हिसाब के हल में हूँ । दूसरी कंकड़ी गर्दन के पास आकर लगी। मैंने सिर ऊपर उठाया । सवाल बेहल रहा, और मैंने देखा, कहीं कोई नहीं । चेहरा किताब में गड़ा है, और बालों में ढका है। लेकिन मैं यों हार न सका । कंकड़ी निशाना साध कर फेंकी। टप से ऐन किताब के बीच में वह पड़ी। चेहरा वह उठा, चढ़ी त्योरी श्रोर तनी भवें । चुनौती अब मुझ में से हँस पड़ी । मैं चेहरे की ओर मुस्कराया ।
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उधर भवें और बांकी पड़ीं, त्यौरियाँ कसीं । मैंने एलजब्र के सवाल के हल में लगे कोयले के टुकड़े को उठा कर चेहरे की भेंट के लिए फेंका। वह रानी के चेहरे को, उठे मुंह को न पा सका, जाकर रानी के चरणों में पड़ा ।
त्यौरियाँ हट गईं, भवें खुल गईं, बालों को उसने पीछे किया। हाथ हटा तो देखा, छिपा चाँद बादलों में से अब एक साथ उजला होकर हँस आया है । वह चेहरा जल्दी झुका नहीं, फोकी मुस्कराहट में मेरी मोर मुस्कराता उठा रहा और में भी एलजब्रा भूल गया । श्रौर उस चेहरे कोटक भर देखता ही रहा ।... फिर याद पड़ता है, एक तीखी प्रावाज
"रानी, जगरानी, प्रो जग्गो !"
रानी ने जैसे सुना नहीं । चेहरे पर मुस्कराहट फैली रही और वह उसी तरह रहा ।
"ओ जग्गो की बच्ची ! कहाँ मर गई, कम्बख्त ?”
चेहरा मुस्कराता ही रहा। मुस्काहट किस ओर थी ? छतों पर कोई और न था । ऊपर बादल थे, जो पानी से भरे थे प्रोर बाट में खड़े थे । मैंने इधर-उधर देखा । यह अजस्र मुस्कराहट का दान क्या मुझ निज के लिए है ? मैं कृतार्थता से जैसे नहा प्राया, लेकिन उस पन्द्रह